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________________ २६२ वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३६० भावकः शुद्धावकाशे साधुनिवाले चैत्यालये व प्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावणन्धिन्तमावहितान्तःकरणः सन् उपवसन् एकाग्रमनाः सन् उपवास कुर्यात् । स श्रावकः प्रोषवोपवासवती भवति । तथा समन्तभद्रस्वामिना प्रोकं च । [" पर्वष्टम्यां यशातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहाराणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ पञ्चानां पापानामर्लक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । नानाजननस्यानामुपवासे परिहर्ति कुर्यात् ॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसञ्चतन्द्रालुः ॥ चतुराहारविवर्जनमुपवासः श्रोषधः सकृतिः । स प्रोषघोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥ महणविसर्गास्तरणाम्यदृष्टुमृष्टान्यनादस्मरणे । यत्प्रोषधोपवासे व्यतिर्लयन फलकं तदिदम् ॥] इति द्वितीयशिक्षा प्रोषधोपवासाख्यं कथितम् २ ॥ ३५८-५९ ॥ अथ तृतीयं शिक्षावतमतिथिसंविभागाख्यं गाथापाकेनाहतिविहे पत्तम्हि' या सद्धाई-गुणेहि संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं णव दाण-विहीहि संजुतो ॥ ३६० ॥ सिक्खा वयं च तिदियं तस्स हवे सब - सिद्धि-सोक्खयरं ।" दाणं चउवि पि य सधे दाणाणे सारयरं ॥ ३६१ ॥ [ छाया-त्रिविधे पाने सदा श्रद्धाविगुणैः संयुतः ज्ञानी । दानं यः ददाति स्वयं नवदानविधिभिः संयुक्तः ॥ शिक्षावतं च तृतीयं तस्य भवेत् सर्वसिद्धिसौख्यकरम्। दानं चतुर्विधम् अपि च सर्वदानानां सारतरम् ॥ ] तस्य arrer शिक्षा दानम् अतिथिसंविभागाख्यं तृतीयं भवेत् स्यात् । कीदृशं तत् । दानं चतुर्विधमपि चतुःप्रकारम् । रखना तथा आवश्यक कर्तव्यको भी भूल जाना, ये पाँच अतिचार हैं। इन्हें छोड़ना चाहिये। आगे प्रोषध प्रतिमा में १६ प्रहरका उपवास करना बतलाया है । अर्थात् सप्तमी और तेरस के दिन दोपहरसे लेकर नौमी और पन्द्रसके दोपहर तक समस्त भोगोपभोगको छोड़ कर एकान्त स्थानमें जो धर्मध्यानपूर्वक रहता है उसके प्रोषधोपवास प्रतिमा होती है । परन्तु यहाँ सोलह प्रहरका नियम नहीं है इसीसे जिसमें उपवास करनेकी सामर्थ्य न हो उसके लिये एक बार भोजन करनाभी बतलाया है, क्यों कि यह बत शिक्षारूप है । इस तरह प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षोत्रतका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥ ३५८३५९ || आगे पाँच गाथाओंके द्वारा अतिथिसंविभाग नामक तीसरे शिक्षानतका स्वरूप कहते हैं । अर्थ - श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त जो ज्ञानी श्रावक सदा तीन प्रकारके पात्रको दानकी नौविभियोंके साथ स्वयं दान देता है उसके तीसरा शिक्षावत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानोंमें श्रेष्ठ है, और सब सुखोंका तथा सिद्धियोंका करनेवाला है | भाषार्थ -पात्र तीन प्रकारके होते हैंउत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । जो महात्रत और सम्यक्त्वसे सुशोभित हो वह उत्तम पात्र है, जो देशनल और समय से शोभित हो वह मध्यम पात्र है और जो केवल सम्यग्दृष्टि हो वह जघन्य पात्र है । पात्र बुद्धिसे दान देने योग्य ये तीनही प्रकार के पात्र होते हैं । इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देने बाला दाता भी श्रद्धाआदि सात गुणोंसे युक्त होना चाहिये। वे सात गुण हैं - श्रद्धा, भक्ति, अलब्धता, दया, शक्ति, क्षमा और ज्ञान । 'मैं बड़ा पुण्यत्रान् हूँ, आज मैंने दान देनेके लिये एक वीतराग पात्र पाया है', ऐसा जिसका भाव होता है वह दाता श्रद्धावान् है । पात्रके समीपमें बैठकर जो उनके पैर दबाता है, वह भक्तिवान् है । 'मुझे इससे काम है इसलिये में इसे दान देता हूँ ऐसा भाव जिसके १ म पनि २ व साई ३ क म स वश्यं गतये । ४ ब सम्वसोख सिद्धिगर । ५ वा सम्मे हांगाणि [ सम्बंधणाण ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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