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१२. धर्मानुभेक्षा निर्जरयति । कम् । कमलेशम् अपि एकदेशेन कर्मनिर्जराम् अपिशब्दात साकल्येन न कर्मनिर्जरा करोति, लेशमात्रकर्म न निजरतीत्यर्थः । स कः । य आरम्भं करोति, आरम्भ गृहहहण्यापारक्रयविक्रयकृषिमषिवाणिज्याधुत्यम् आरम्भं करोदिया स लवलेशमात्रकर्म न निर्जरति । कुतः । मोहात् मोहनीयकों कात् , ममत्वपरिणामाद्वा रागद्वेषपरिणामाद्वा । किं कुर्वन् । उपवास प्रोषधं कुर्वन् विदधानः । प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्यां च प्रोषधोपवासमझीकरोतीत्यर्थः । व्रतेतु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिना प्रोक्तं च । "उमममममजवर्ण तिविहं पोसइविहाणमुदिडं । सगसत्तीए मासम्मि चउसु पञ्चेसु कायर्व १॥ सत्तमितेरसिदिवसम्म अतिहिजणभोयगावसाणम्मि । भोतण भुंजणि तत्थ वि काऊण मुहसुदि॥ २॥ पक्खालिदूण वयण करचलणे जियमिण तत्थेव । पच्छा जिगिंदभवणे गंतण जिर्ण णमसित्ता ॥३॥ गुरुपुरदो रिसदानकोटका दूण पुरसतिसामुदाहिन! यसयिह विहिगा ॥४॥ वायणकहाणुपेहणसिकाखावणचिन्तगोपओगेहिं । णेकूण दिवससेसं अवरण्यित्रंदणं किच्चा ॥५॥ रयणिसमयम्हि लिया काउस्समोण णिययसत्तीए । पडिले हिण भूमि अप्यफमाणेग संथारै ॥६॥णेदूण किन्धि रसिं सुइण जिगालए जियघरे
वा । अहबा सयल रति काउस्सग्गेण दुण ॥ ७॥ पसे उट्टेसा वदगविहिणा जिणं गमसिना । तह दब्यमापुज . विणसुदसाहूण काऊण ॥८॥ पुन्वुत्तविहाणेर्ण दियह रत्तिं पुणो वि गमिदूण । पारणदियहम्मि पुणो पूर्व कारुण पुर्व व ५ ॥१॥ गतूण णिययगेहं अतिहिविभागै च तस्य काऊण । जो भुंड तस्स फुट पोसहविहिमुत्तम होदि ॥१०॥ अह उबई
तह मज्झिम पि पोसहबिहाणमुहिर्टणवर घिसेसो सलिल छंडिसा बजए सेसं ११|| मुणिऊण गुरुवकचं सावविवक्षिय जियारेभ । जदि कुगदि पि कुजा सेसं पुत्रं व पायव्वं ।। १२॥ आयंबिलणिम्बियही एयहाणं च एवमत च। अंकीरदि तं णेयं जहष्णय पोसहविहार्ण ॥१३॥ सिष्हाणवट्टणगंधधम्मिलकेसादिदेहसंकप्पं । अमण पिरागहेवं विवजए पोसहदिम्मि ॥ १४ ॥" इत्यनुप्रेक्षायां प्रोषधप्रतिमा, पञ्चमो धर्मः ५॥३५८ ॥ अथ सचित्तविरतिप्रतिमा गाथाद्येन भणीति
दुकानका काम धाम नहीं छोडता अर्थात् विषय कषायको छोड़े बिना केवल आहार मात्र ही छोड़ता है यह उपवास करके केवल अपने शरीरको सुखाता है, कोंकी निर्जरा उसके लवमात्र भी नहीं होती। यहाँ इतना विशेष जानना कि व्रत प्रतिमामें जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें प्रोषधोपवासका नियम नहीं है। आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिकने प्रोषधोपवासका वर्णन इस प्रकार किया है "उत्तम मध्यम और जघन्यके मेदसे तीन प्रकारका प्रोषधोपवास कहा है जो एक महिनेके चार पोंमें अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये ॥ सप्तमी और तेरसके दिन अतिथिको भोजन देकर स्वयं भोजन करे और भोजन करके अपना मुँह शुद्ध करले || फिर अपने शरीरको धोकर और हाय पैरको नियमित करके जिनालयमें जाकर जिन भगवानको नमस्कार करे ॥ फिर बन्दनापूर्वक सामायिक आदि कृतिकर्म करके गुरुको साक्षीपूर्वक चार प्रकारके आहारको त्यागकर उपासको स्वीकार करे। शास्त्र वांचना, धर्मकथा करना, अनुप्रेक्षाओंका चिन्तना, दूसरोंको सिखाना आदि उपयोगोंके द्वारा शेष दिन बिताकर संध्याके समय सामायिक आदि करे || रात्रिके समय भूमिको साफ करके उसपर अपने शरीरके बराबर संथरा लगाकर अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग करे। कुछ रात कायोत्सर्गपूर्वक बिताकर जिनालयमें या अपने घर शयन करे । अथवा सारी रात कायोत्सर्गपूर्वक बितावे ।। प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक जिनकन्दना करके देव शास्त्र और गुरुकी द्रव्यपूजा और भावपूजा करे || फिर शास्त्रोक्त विधिके अनुसार वह दिन और रात बिताकर पारणाके दिन पहलेकी ही तरह पूजा करे ।। फिर अपने घर जाकर अतिथियोंको भोजन कराके स्वयं भोजन करे । इस प्रकार जो करता है उसके उत्तम प्रोषधोपवासं होता है। उत्कृष्ट प्रोषधोषवासकी जो विधि है वही मध्यम प्रोषधोपवासकी है। केवल इतना अन्तर है कि मध्यम उपवासमें पानीके सिवाय अन्य सब वस्तुओंका त्याग होता है ।। अत्यन्त आवश्यकता जानकर यदि कोई ऐसा कार्य करना चाहे जिसमें सावधका योग न हो और न आरम्भ करना पड़ता हो तो कर सकता है | शेष बातें उत्कृष्ट प्रोषधोपवासकी तरह जाननी चाहिये ॥ चावल या