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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३७७
पुन: पूजनविधिं कृत्वा जिनम्रपाष्टधानविधि कृत्वा विधाय ततः पुनः पणवरि विशेषेण त्रिविधपात्रं गृहीत्वा जघन्यमध्यमोत्कृष्टपार्थं सम्यग्दृष्टिश्रा व कमुनीश्वरलक्षणं नवरि सप्तदातृगुणन व विधपुष्योपार्जन विशेषेण गृहीत्वा गृहागतं पात्रं प्रति गृह्य भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा त्रिविधपात्रेभ्य आहारदानं दवा इत्यर्थः । ततः पश्चात् भोजनपारण कुर्वन् प्रोषधो भवति प्रोषधव्रतधारी स्यात् सप्तम्यास्त्रयोदश्याश्च दिवसे मध्यावे सुचवा उत्कृष्टप्रोषधवती चैत्यालये गत्वा प्रोषधं गृह्णाति, मध्यमप्रोषधवती तत्संध्यायां प्रोषधं गृह्णाति जधन्यप्रोषथन्नती अडमीचतुर्दशीप्रभाते प्रोषधं गृह्णाति ॥ ३७३-७६ ॥ ar प्रोषध माहात्म्यं गाथाद्वयेनाह
एकं पि णिरारंभं उववासं जो करेदि उबसंतो ।
बहु-भत्र संचिय-कम्मं सो णाणी संवदि लीलाए ॥ ३७७ ॥
[ छाया - एकम् अपि निरारम्भं उपवासं यः करोति उपशान्तः । बहुभवसंचितकर्म स ज्ञानी क्षपति लीलया ॥ ] स ज्ञानी भेदज्ञानी विवेकवान् प्रोषधवत पुमान् बहुभवसंन्दितकर्म क्षपयति बहुभवेषु अनेकमवेषु बहुजन्मसु संचितमुपाजितं यत्कर्म ज्ञानावरणादिकं क्षये नयति । क्या । लीलया क्रीडया सुखेन प्रयासं विना । स कः । यः करोति विदधाति । कम् । एकमपि अद्वितीयमपि, अपिशब्दात् अनेकमपि, उपवासं प्रोषवं प्रोषधोपवासं करोति । कीदृक्षम् । निरारम्भं गृहब्यापारक्रयविक्रयादिसावद्यरहितम् । उक्तं च । 'कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं चिदुः ॥ ३७७ ॥
उवत्रा कुतो औरंभ जो करेदि मोहादो ।
सोणिय देहं सोसदि ण झडए कम्म-लेसं पि ॥ ३७८ ॥ *
[ छाया - उपवासं कुर्वन आरम्मं यः करोति मोद्दात् । स निजदेहं शोषयति न शातयति कर्मलेशम् अपि ॥ ] स प्रोषधोपवासं कुर्वन् शुष्यति कृशतां नयति । कम् । निजदेहं स्वशरीरं ऋशीकरोति, न लाए नोज्झति न जीर्यते न
भक्ति पूर्वक उन्हें भोजन कराता है । उसके बाद स्वयं भोजन करता है । यह प्रोषध प्रतिमाके धारक श्रावककी विधि है। इसमें इतना विशेष है कि उत्कृष्ट प्रोषधवती सप्तमी और तेरसके दिन मध्याहमें भोजन करके चैत्यालय में जाकर प्रोषधको खीकार करता है। मध्यम प्रोषधनती सप्तमी और तेरसकी सन्ध्याके समय प्रोषध ग्रहण करता है और जघन्य प्रोषधती अष्टमी और चतुर्दशी के प्रभात में प्रोषध ग्रहण करता है । ३७३-३७६ ॥ आगे दो गाथाओंसे प्रोषधका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जो ज्ञानी आरम्भको त्यागकर उपशमभावपूर्वक एकमी उपवास करता है वह बहुत भवोंमें संचित किये हुए कर्मको लीलामात्रमें क्षय कर देता है || भावार्थ - कषाय और विषय रूपी आहारको त्यागकर तथा इसलोक और परलोक भोगों की आशा छोड़कर जो एक भी उपवास करता है वह मेदज्ञानी विवेकी पुरुष भव भव संचित कमको अनायास ही क्षय करदेता है, क्यों कि वही उपवास सच्चा उपवास है जिसमें कषाय और विषयरूपी आहारका त्याग किया जाता है। भोजन मात्रका छोड़ देना तो उपवास नहीं है, लंघन है। ऐसे एक उपवास से भी जब भव भव में संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं तब जो प्रोषध प्रतिमा लेकर प्रत्येक पक्षमें दो उपवास करता है, उसका तो कहना ही क्या है ? || ३७७ ॥ अर्थ-जो उपवास करते हुए मोहश आरम्भ करता है वह अपने शरीर को सुखाता है उसके लेशमात्र भी कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती ॥ भावार्थ- जो प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास ग्रहण करके भी मोहमें पड़कर घर
१ व सवदि, ग स्पषिद । २ ग आरंभो । ब शाह व पोसद्द । सचिचं त्यादि ।
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