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अश्मुद्धात
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स्वामिकार्त्तिकेयानुमेस
[० १०९
ततः असंयत्तचम्यग्दृष्टिगुणस्थान गुणश्रेणिनिर्जरा द्रव्यमाख्यातगुणं भवति । १ । ततः देशयतस्य गुणविनिर्जराइब संख्यातगुणम् । २ । ततः सकलसंयत्तस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ३ : ततोऽनन्तानुबन्धिकवायविसंयोजकस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ४ । ततो दर्शन मोहक्षपकस्य गुणश्रेणिनिर्जरा इन्यमसंख्यातगुणम् । ५ । ततः कषायोपशमत्रयस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ६ । ततः उपशान्तकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रभ्यमसंख्यातगुणम् । ७ । ततः क्षपकश्रमस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ८ । ततः क्षीणकषायस्य गुणश्रेणिनिर्जरावब्यमसंख्यातगुणम् । ९ । ततः स्वस्थानकेवलिजिनस्य पतिविशख्यातगुणतः मु जिनस्य गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यमसंख्यातगुणम् । ११ । इत्येकादशस्वस्थाने गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यस्य प्रतिस्थानम संख्यात्तगुणितमुकम् ॥ १०६-८ ॥ अथाधिकनिर्जरा कारण गाथाचतुष्केनाह
जो विसहृदि दुषयणं साहम्मिय- हीलणं च उवसगं । जिणिऊण कसाय - रिडं तस्स हवे णिज्जरा विजेला ॥ १०९ ॥
असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे सयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे अयोगकेवली भगवानके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार इन ग्यारह स्थानोंमें ऊपर ऊपर असंख्यात गुणी असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥ भावार्थ-प्र - प्रथम उपशम सम्यमस्वके प्रकट होने से पहले सातिशय मिध्यादृष्टिजीवके अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके तीन परिणाम होते हैं। जब वह जीव उन परिणामोंके अन्तिम समय में वर्तमान होता है, तो उसके परिणाम • विशुद्ध होते हैं, और वह अन्य मिध्यादृष्टियोंसे विशिष्ट कहता है । उस विशिष्ट मिथ्यादृष्टिके आयुकर्मके सिवाय, शेष सातकम की जो गुणश्रेणि निर्जरा होती है, उससे असंयत सम्पष्टिके श्रसंख्यातगुणी निर्जरा होती है । इसी प्रकार आगेमी समझना चाहिये । सारांश यह है कि जिन जिन स्थानों में विशेष विशेष परिणाम विशुद्धि है, उन उनमें निर्जरा भी अधिक अधिक होती है, और ऐसे स्थान ग्यारह हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि ग्रन्थकारने ग्यारहवाँ स्थान अयोगीको बतलाया है। किन्तु सं. टीकाकारने सयोगकेवली के ही दो मेद करके खस्थानसयोगकेवलीको दसवाँ और समुद्घातगत सयोगकेवलीको ग्यारहवाँ स्थान बतलाया है । और, 'अजोइया' को एक प्रकार से छोड़ ही दिया है। इन स्थानोंको गुणश्रेणि मी कहते हैं, क्योंकि इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती है। [ तत्त्वार्थसूत्र ९-४५ में तथा गो. जीवकाण्ड गा० ६७ में केवल 'जिन' पद आया है । तवार्थसूत्रके टीकाकारोंने तो उसका अर्थ केवल जिन ही किया है और इस तरह दसही स्थान माने है (देखो, सर्वार्थ और राजवार्ति० ) किन्तु जीवकाण्डके से टीकाकारोने 'जिन' का अर्थं स्वस्थानकेवली और समुद्धात केवली ही किया है । वे साहित्य पंचम कर्मग्रन्थ, पञ्चसंग्रह गैरह में सयोगकेवली और अयोगकेवलीका ग्रहण किया है । अनु० ] ॥ १०६-८ ॥ चार गाथाओं से अधिक निर्जरा होनेके कारण बतलाते हैं । अर्थ-जो मुनि कषायरूपी शत्रुओंको जीतकर दूसरोंके दुर्वचन, अन्य साधर्मी मुनियोंके द्वारा किये गये अनादर और देव वगैरह के द्वारा किये गये उपसर्गको सहता है, उसके बहुत निर्जरा होती है || भावार्थ - जीवके साथ दूसरे लोग जो कुछ दुर्व्यवहार करते हैं, वह उसके ही पूर्वकृत कर्मो का फल है। ऐसा समझकर जो मुनि दूसरोंपर
१ ब साम्मिी । २ च णिजर बिउकं ।
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