SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१११] १. निर्जरानुप्रेक्षा [छायायः विषहते दुवैचन साधर्मिकहीलने च उपसर्गम् । जिल्ला कषायरि तस भवेत् निर्जरा विपुला ] तस्य मुनेः, विपुला प्रचुरा निखीर्णा, निर्जरा कर्मणां गलनं भवेत् । तस्य कस्य । यः मुनिः विषहते क्षमते । किम् । दुर्वचनम् अन्यकृतगालिप्रवान हननम् अपमानम् अन्नादर साधर्मिकानादरं विषहते। च पुनः, उपसर्ग देवादिकृतचतुर्विधोपसर्ग महसे । या । जित्वा निगृख कषायरिएं कोधमानमासलोभरागद्वेषादिशत्रुम् ॥ १.९॥ रिण-मोयण व मपणइ जो उयसग्गं परीसह तिबं । पाव-फलं मे एवं मया विजं संचिदं' पुर्व ॥ ११० ।। [छाया-ऋणमोचनम् इव मन्यते यः उपसर्ग परीषई तीवम् । पापफलं मे एतत् मया अपि यत् मैचित पूर्वम् ॥ यः मुनिः मन्यते जानाति । कम्। उपसर्ग देशदियष्ठिमुष्टिमारणादिक कृत, च पुनः, सीब घोर परीपई शुषा. विजनिराम् । किंवत् । ऋणमोचनवत् यथा येन केनोपायन ऋणमोचन क्रियते तथा उपसोदिसहन पापऋणमोचना कर्तव्यम् । अपि पुनः, मे मम, एतापापफलम् एसटुपसर्गादिक मम पापफलम्, यत् पापफलं मया पूर्वम् अतः प्रासंचितम् उपार्जितम् इति मन्यते ॥ १०॥ जो चिंतेइ सरीरं ममत-जणयं विणस्सरं असुई। दसण-णाणचरितं सुह-जणयं जिम्मलं णिचं ॥ १११॥ माणा-यः लिलगानि गीर गान विदारक चिम् । दर्शनशानचरित्रं शुभजनक निर्मके निस्त्रम् ॥] बो मुनिः चिन्तयति। किं तत् । शरीर कायम्। कीहक्षम्। ममत्वजनकै ममत्वोरपादकम् । पुनः कीदक्षम् । विनश्वर महार पिकम् । पुनः कीदृक्षम् । अशुचि अपवित्रद्रव्यजनितम् अपवित्रधातुरितं च एवंभूतं शरीरै चिन्तयति । दर्शनहानबारित्रं चिन्तयति। कीदक्षम्। शुभजनक प्रशस्वकार्योत्पादकम् । पुनः निर्मले, सम्यक्त्वस्य पञ्चविंशतिः मला, शानस बनर्षपासादयोऽयौ मलाः, चारित्रस्य भनेके मलाः, वेभ्यः निःझान्तम् । कीदृक्षम् । नित्यं शाश्वतं खाल्मगुणत्वात् ॥११॥ कोष नहीं करता और दुर्वचन, निरादर तथा उपसर्गको धीरतासे सहता है, उसके काँकी अधिक निर्जरा होती है। अत: उपसर्ग वगैरहको धीरतासे सहना विशेष निर्जराका कारण है । उपसर्ग चार प्रकारका होता है। देवकृत-जो किसी व्यन्तरादिकके द्वारा किया जाये, मनुष्यकृत-जो मनुष्य के द्वारा किया जाये, तिर्यश्चकृत-जो पशु वगैरहके द्वारा किया जाये, और अचेतनकृत-जो वायु कौरहके द्वारा किया जाये ॥१०९ ॥ अर्थ-'मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप कमाया था, उसीका यह फल है, ऐसा जानकर जो मुनि तीव्र परीषह तथा उपसगको कर्जसे मुक्त होनेके समान मानता है, उसके बहुत निर्जरा होती है । भावार्थ-जैसे पहले लिये हुए ऋणको जिस किसी तरह चुकाना ही पड़ता है, उसमें अधीर होनेकी भावश्यकता नहीं है । वैसे ही पूर्वजन्ममें संचित पापोंका फल मी भोगना ही पड़ता है, उसमें अधीर होनेकी आवश्यकता नहीं है, ऐसा समझकर जो उपसर्ग आनेपर अथवा भूख प्यास वगैरहकी तीन वेदना होनेपर उसे शान्त भावसे सहता है, व्याकुल नहीं होता, उस मुनिके बहुत निर्जरा होती है ॥ ११०॥ अर्थ-जो मुनि शरीरको ममलका उत्पादक, नाशमान और अपवित्र धातुओंसे भरा हुआ विचारता है, तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको शुभ कार्योंका उत्पादक, अविनाशी और मलरहित विचारता है, उसके अधिक निर्जरा होती है | भावार्थ-शरीरके दोषोंका और सम्यग्दर्शन वगैरहके गुणोंका चिन्तन करनेसे शरीरादिकसे मोह नहीं होता और सम्यादर्शनादि गुणोंमें प्रवृत्ति द होती है, अतः ऐसा चिन्तन भी निर्जराका कारण है। सम्पग्दर्शनके २५ मल हैं, सम्याज्ञानके आठ मल हैं और सम्यक् चारित्रके अनेक मल हैं समसग भोगणुय। २ असेच्य। एवममुकं
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy