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________________ धर्मध्यान से निर्जरा - १०८] ९. निर्जरानुप्रेक्षा वन-भादवा यही होई साहूणं । तह तह णिज्जर-बड्डी' विसेसदो धम्म-सुकादो ॥ १०५ ॥ [या-उपशम भावतपसा यथा यथा वृद्धिः भवति साधोः । तथा तथा निर्जरावृद्धिः विशेषतः धर्मशुकाभ्याम् ॥] साधूनां योगिनां यथा यथा येन येन प्रकारेण उपशमभावतपसाम् उपशम भावस्य उपशमसम्यत्वादेः तपसाम् अनशनादीनां वृद्धिर्वर्धनं भवेत् तथा तथा तेन तेन प्रकारेण निर्जराबुद्धिर्जायते, असंख्यातगुणा कर्मनिर्जरा स्यात्, धर्मकाभ्यां धर्मध्यानात् आशापायविपाकसंस्थान विषय मेदभिन्नात् शुरुध्यानाच पृथकवितर्क विचारादेः, विशेषतः असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा कर्मणां निर्जरा जायते ॥ १०५ ॥ अथैकादशनि राणां स्थाननियम गाथाश्रयेण निर्दिशति ५१ (मिच्छादो सहिडी असंख-गुण-कम्म णिजरा होदि । तसो अणुवय-धारी तसो य महवई णाणी ॥ १०६ ॥ पढम कसाथ चण्हं बिजोजओ तह य खेवय-सीलो य । दंसण-मोह-तियरस य तत्तो उवसमर्ग चत्तारि ॥ १०७ ॥ स्वगो य खीण-मोहो सजोइ णाही तही अजोईया | दे वरं वरं असंख-गुण-कम्म णिजरया ॥ १०८ ॥ [ छाया-मिथ्यात्वतः सदृष्टिः असंख्यगुणकर्मनिर्जरो भवति । ततः अणुव्रतधारी ततः च महावती शानी ॥ प्रथम कषायचतुर्णां वियोजनः तथा च क्षपकशीलः च । दर्शन मोहत्रिकस्य च ततः उपशम कचस्वारः ॥ क्षपकः च क्षीणमोहः सयोगिनाथः तथा अयोगिनः । एते उपारे उपरि असंख्यगुणकर्मनिर्जरकाः ॥ ] प्रथमोपशम सम्यवोत्पती करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमान विशुद्ध विशिष्टमिथ्यादृष्टेः आयुर्वैर्जितज्ञानावरणादिसामकर्मणां यद्गुणश्रेणिनिर्जराइभ्यं, अब निर्जराकी वृद्धिको दिखाते है । अर्थ-साधुओंके जैसे जैसे उपशमभात्र और तपकी वृद्धि होती है, वैसे वैसे निर्जराकी भी वृद्धि होती हैं । धर्मध्यान और शुलध्यान से विशेषकरके निर्जराकी वृद्धि होती है । भावार्थ जैसे जैसे साधुजनोंमें साम्यभाव और तपकी वृद्धि होती है, अर्थात् साम्यभाव के आधिक्य के कारण मुनिगण तपमें अधिक लीन होते हैं, वैसे वैसे कर्मों की निर्जरा भी अधिक होती है। किन्तु, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामके धर्मध्यान से तथा पृथक्त्वत्रितविचार, एकत्ववितर्कविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिर्वृती नामके पानसे कभी और मी अधिक निर्जरा होती है । सारांश यह है, कि ध्यान में कर्मोंको नष्ट करनेकी शक्ति सबसे अधिक है ।। १०५ || तीन गावाओंसे निर्जराके ग्यारह स्थानोंको बतलाते हैं । अर्थमादृष्टि से सम्यग्दृटके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है । सम्यग्दृष्टिसे अणुव्रतधारी के असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। अणुव्रतधारी ज्ञानी महाव्रती असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । महाव्रती अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे दर्शन मोहनीयका क्षपण विनाश करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे उपशमश्रेणिके आठवें, नौवें तथा दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवालेके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशमकके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे क्षपकश्रेणिके आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीयका क्षय करने वालेके १२ व १ द घुट्टी ४ प भसंख्यागुणा ५ स ख़बर ६ मा ७ सयोगिणा हो, म सजोयणाणो । ८ व त अयोगी म । ९ द पदो।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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