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________________ १४] १९. धर्मानुप्रेक्षा जिण सासण माहणं बहु-विह-जुतीहि जो पयासेदि । तह तिब्वेण तत्रेण य पहावणा णिम्मला तस्स || ४२३ ॥ ३१९ [छाया-जिनारा माहात्म्यं बहुविधयुविमिः यः प्रकाशयति । तथा तीब्रेण तपसा च प्रभावना निर्मला तस्य ॥ ] तस्य भव्यजनस्य प्रभावना प्रकर्षेण जिनशासनमाहात्म्यस्य भावना उत्साहेन प्रकटनं प्रभावनागुणो भवेत् । तस्य कस्य । यः भव्यः प्रकाशयति प्रकटयति । किम्। जिनशासनमाहात्म्य जिनशासनस्य जिनधर्मस्य महिमानं प्रकटयति कैः कृत्वा । बहुविधयुक्तिभिः अनेकप्रकारचैविद्यविद्या कुशलत्वेन छन्दोऽलंकार व्याकरणमा हित्यतर्कागमाध्यात्मशास्त्रैश्व प्रकाशनैः समुद्दयोतनैः यात्रा प्रतिष्ठाप्रासादोद्धरणजिनपू निर्माण गीतनृत्यवादित्र करण प्रमुखप्रकारैः च प्रकाशयति । तथा तीत्रेण तपसा च ती दुःसाध्येन तपसा अनशनादमोदर्यादिकायक्लेशा दिद्वादशविधतपश्चरणेन जिनशासनमुद्द्योतयतीत्यर्थः । तद्यथा । श्रावण दानपूजादिना तपोधनेन च तपः श्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनापुणो ज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य चलेन मिध्यात्ववित्र्य कषायप्रभृति समस्त विभाव परिणामरूपपरसमयाना प्रभाव हत्वा शुद्धोपयोगलक्षण स्वयं वेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव निजशुद्धस्त्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव निश्वयप्रभावनेति ॥ ४२३ ॥ अथ निःशक्ति दिगुणानामाधारभूतं पुरुषं निरूपयति- जो ण कुणदि पर-तत्तिं पुणु पुर्ण भावेदि सुद्धमप्पाणं । इंदिय - सुह-रिवेक्खो' णिस्संकाई गुणा तस्स || ४२४ ॥ [ छाया-यः न करोति परतष्टिं पुनः पुनः भावयति शुद्धमात्मानम् । इन्द्रियसुखनिरपेक्षः निःशङ्कादयः गुणाः तस्य ॥ ] तस्य भन्यवर पुण्डरीकस्य निःशङ्काद्यष्टगुणा भवन्ति । तस्य कस्म । यः पुमान् न करोति न विदधाति । काम् । परतति परेषां निन्दा परदोषाभाषणं परापवादं न विदधाति न भाषते । तथा पुनः वारंवारं मुहुर्मुहुर्भावयति ध्यायति चिन्तयति प्रकाशित करता है, तथा अपने आत्माको मी ( दस प्रकारके धर्मसे) प्रकाशित करता है उसके प्रभावना गुण होता है ॥ ४२२ ॥ अर्थ - जो सम्यग्दृष्टि अनेक प्रकार की युक्तियोंके द्वारा तथा महान् दुर्द्धर तपके द्वारा जिन शासनका माहात्म्य प्रकाशित करता है उसके निर्मल प्रभावनागुण होता है || भावार्थ - अनेक प्रकारकी युक्तियोंके द्वारा मिथ्यावादियों का निराकरण करके अपना अनेक प्रकार के शास्त्रोंकी रचना करके या जिनपूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा वगैरहका आयोजन करके अथवा घोर तपश्वरण करके लोक जैन धर्मका महत्त्व प्रकट करना व्यवहारसे प्रभावनागुण है । और उसी व्यवहार प्रभाबनागुण के बलसे मिथ्यात्य, विषयकषाय वगैरह समस्त विभाव परिणामोंके प्रभावको हटाकर शुद्धोपयोग रूप स्वसंवेदन के द्वारा विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप अपनी आत्माका अनुभवन करना निश्चय प्रभावमागुण है ॥ ४२३ ॥ आगे बतलाते हैं कि निःशंकित आदि गुण किसके होते हैं ? अर्थ-जो पुरुष पराई निन्दा नहीं करता और वारंवार शुद्ध आत्माको भाता है तथा इन्द्रिय सुखकी इच्छा नहीं करता उसके निःशङ्कित आदि गुण होते हैं । भावार्थ - यहाँ तीन विशेषण देकर यह बतलाया है कि जिसमें ये तीनों बातें होती हैं उसीमें निःशंकित आदि गुण पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है- जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा करता है उसके निर्विचिकित्सा, उपगूहन, स्थितिकरण और वात्सल्य नामके गुण नहीं हो सकते, क्यों कि बुरे अभिप्राय से किसीके दोषोंको प्रकट करनेका नाम निन्दा है । अतः जो निन्दक है वह उक्त गुणोंका पालक कैसे हो सकता है ? तथा जो अपनी शुद्ध १ व सती । २मस पुणे पुणे (१) । ३ व भागे । ४ म गिरविको ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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