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स्थामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[मा० ४२५अनुभवति । कम् । शुद्धम्र आत्मानं द्रव्यमावनोकर्मभलरहित शुद्ध शुद्धचिद्रूपं भावयति। कीदृक्षः सन्। इन्द्रियसुखनिरपेक्षा इन्द्रियाणा स्पर्शनादीनां सुखतः शर्मणः निर्गता अपेक्षा वान्छा यस्य स तथोक्तः पवेन्द्रियविषयवाअरहितः ॥४२४ ॥ क क निःशक्तिलमित्युक्के चाह
हिस्संका-पहुडि-गुणा जह धम्मे तह य देव-गुरु-तथे ।
जाणेहि जिण-मयादो सम्मत्त-विसोईया एदे ।। ४२५ ॥ [छाया-निःशाप्रभृतिगुणाः यथा धर्मे तथा च देवगुरुतत्त्वे। जानीहि जिनमतात् सम्यक्त्वविंशोधकाः एते। यथा येनैव प्रकारेण धर्म उत्तमक्षमामादचार्जवसत्यशोचसयमतपस्त्यागार्किचन्यब्रह्मचर्यलक्षणे धर्मे दशयकारे व्यवहारनिश्चय रमात्रये धर्म वा निःशङ्काप्रमृतिगुणा इति । निःशक्कित १ निःकांक्षित २ निर्विचिकित्सा ३ मृढदृष्टि ४ सोपाहून ५ स्थितिकरण ६ वात्सल्य ७ प्रभावनागुणाः भवन्ति । तथा तेनैव प्रकारेण देवगुरतत्त्वेषु तान् गुणान् जानीहि । देवे अष्टादशदोषरहितवीतरागसर्वज्ञदेवेऽष्टौ निःशहिताविगुगान् त्वं भो भव्य जानीहि । तथा गुरौ निम्रन्थाचार्ये चतुर्विशतिपरिग्रहपरिसंदिगम्बरगरी तान् निःशहिताचष्टौ गुणान् जानीहि । तथा तत्त्वेषु जीपाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोशेषु सप्तसु पुण्यपापद्वयसहितनवपदार्थेषु जीवाजीवधर्माधर्मकालाकाशेषु ष द्रव्येषु पसास्तिकायेषु व्रततपःसयमसम्पत्वादिषु च निःशलिाग गयान जानीहि । किं घहुना जिनोपसर्वपदार्थेषु शश्वादयो न कर्दव्याः। जिनोकाक्षरार्थपदोकादिषु शशादिकं करोति तदा मिध्यादृष्टिः स्यात् । कुतः । जिनमतात् जिनवचनात् सर्वज्ञवीतरागोपदेशात् जिनशासनमाश्रित्य । यतः एते निःशहितादयो गुणाः सम्यक्त्वविशुद्धिकराः सम्यग्दर्शनस्य विशुद्धिकरा निर्मलकराः । अत्राशनचोरादिकया सातव्याः ॥ ४२५ ॥ युग्मम् ॥ अथ धर्मस्य शातृत्वकर्तृत्वदुर्लभवं व्यनक्ति
आत्माको भाता है उसी के निःशंकित, अमूद दृष्टि, प्रभावना नामके गुण हो सकते हैं; क्यों कि जिसको आत्माके स्वरूपमें सन्देह है और जिसकी दृष्टि मढ़ है वह अपनी व आत्माकी वारम्बार भावना नहीं कर सकता । तथा जिसके इन्द्रियसुखकी चाह नहीं है उसीके नि:कांक्षित गुण होता है, अत: जिसके इन्द्रिय Bखकी चाह है उसके मिःकांक्षित गुण नहीं होता । इस तरह उक्त तीन विशेषणोंवालेके ही बालों गुण होते हैं ।। ४२४ ॥ आगे बतलाते है कि निःशकित आदि गुण कहाँ कहाँ होने चाहिये। अर्थ ये निशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्मके विषयमें कहे वैसे ही देव गुरु और तत्त्वके विषयमें मी जैन आगमसे जानने चाहिये । ये आठों गुण सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करते हैं | भावार्थ-ऊपर उत्तम क्षमा आदि दस धोंक विषयमें निःशंकित आदि गुणोंको बतलाया है। आचार्य कहते है कि उसीप्रकार अठारह दोष रहित वीतराग सर्वझ देवके विषयमें, चौबीस प्रकारके परिप्रहसे रहित दिगम्बर गुरुओंके विषयमें, तथा जिन भगवान के द्वारा कहे हुए जीव अजीव आसव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष इन सात तत्वोंमें और इन्हीमें पुण्य पापको मिलानेसे हुए नौ पदार्थो व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म,
आकाश और काल इन छ. द्रव्योंमें मी निःशंकित आदि गुणोंका होना जरूरी है । अर्थात् सम्यादृष्टीको देव गुरु और तत्त्वके विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये, उनकी यथार्थश्रद्धाके बदलेमें इन्द्रिय सुखकी कांक्षा (चाह ) नहीं करनी चाहिये, उनके विषयमें ग्लानिका भाव नहीं रखना चाहिये, उनके विषयमें अपनी दृष्टि मूढताको लिये हुए नहीं होनी चाहिये, उनके दोषों को दूर करनेका प्रयन करना चाहिये, उनके विषयमें अपना मन विचलित होता हो तो उसे स्थिर करना चाहिये, उनमें सदा वात्सल्य भाव रखना चाहिये, और उनके महत्वको प्रकट करते रहना चाहिये । इन गुणोंको धारण करने से सम्यग
१गतह घेव । २ बिसोहिया ।