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________________ - ४२७ ! १२. धर्मानुप्रेक्षा धम्मं ण मुणदि जीवो' अहवा जाणेह कह व कट्ठेण । काउं तो वि ण सकदि मोह- पिसाएण भोलविदो ॥ ४२६ ॥ [छाया-धर्म न जानाति जीवः अथवा जानाति कथमपि कष्टेन कर्तुं ततः अपि न शक्नोति मोद्दपिशाचेन भ्रामितः ॥ ] जीव आत्मा धर्म श्रावक्यतिमेदभिन्नं धर्म जिनोतं न जानाति तत्स्वरूपं न वेति । अथवा कथमपि केनापि प्रकारेण महता कष्टेन दुःखेन धर्म जानाति चेत् तो चि तर्हि तथापि कर्तुं धर्मम् आचरितुं न शक्नोति । कीदृक् सन् जीवः । मोहपिशाचेन भ्रामितः, मोह एव पिशाचः राक्षसः प्रतारकत्वात् तेन भ्रमितः प्रतारितः छलितः मोहनीयकर्मपिशाचेन गृहीतः विकलीकृतः प्रथिल इत्यर्थः ॥ ४२६ ॥ अथ सोपहासं दृष्टान्तेन धर्मकर्तृत्वेन धर्मदुर्लभत्वं विवृणोति I जह जीवो कुणइ रई पुस- कलत्तेसु काम-भोगेसु' । तह जड़ जिणिंद - धम्मे तो लीलाए सुहं लहृदि ॥ ४२७ ॥ ३२१ [ छाया - थथा जीवः करोति रतिं पुत्रकलत्रेषु कामभोगेषु तथा यदि जिनेन्द्र धर्मे तत् लीलया सुखं लभते ॥ ] यथा येनैव प्रकारेण उदाहरणोपन्यासे वा जीव जन्तुः संसारी पुत्रकलत्रेषु रतिं करोति, तनुजका मिनीजनक जननीभ्रातृबन्धुमित्रत्यादिषु रागं प्रीति स्नेहं विदधाति । यथा जीवः कामभोगेषु कन्दर्पसुखे भोगेषु पञ्चेन्द्रियाणां विषयेषु धनधान्यमन्दिरवस्त्राभरणादिषु च रनिं करोति तथा तेनैव पुत्रकलत्रकामभोगप्रकारेण यदि जिनेन्द्रधर्मे जिनवीतरागसर्वशो में रतिं रामं प्रीतिं लेई करोति चेत् तर्हि लीलया कांडया हेलामात्रेण सुखेन सुखं स्वर्गमोक्षोद्भवं सौख्यं लभते प्राप्नोति । तथा चोकं च । "जा दव्वे होइ मई अवा तरुणीमु स्ववंती । सा जड़ जिणवरधम्मे करयरमाद्विया सिद्धी ॥” इति ॥ ४२७ ॥ अथ लक्ष्म्याः वाञ्छादरः सुलभ इत्यादयति दर्शन निर्मल होता है। इन गुणोंके धारक अञ्जन चोर वगैरह की कथा जैनशास्त्रोंमें वर्णित है वहाँसे जान लेनी चाहिये ॥ ४२५ ।। आगे कहते हैं कि धर्मको जागना और जानकर भी उसका आचरण करना दुर्लभ है । अर्थ- प्रथम तो जीव धर्मको जानता ही नहीं है, यदि किसी प्रकार कष्ट उठाकर उसे जानता भी है, तो मोहरूपी पिशाचके चक्कर में पडकर उसका पालन नहीं कर सकता ॥ भावार्थ - अनादिकाल से संसारमें भटकते हुए जीवको सच्चे धर्मका ज्ञान होना बहुत ही कठिन है, क्यों कि एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंगी पश्चेन्द्रियकी पर्याय तो हित-अहितको समझने की शक्ति ही नहीं होती । सैनी पश्चेन्द्रिय पर्यायमें भी यदि नारकी या पशु हुआ तो नरकगति और पशुगतिके दुःखोंसे सदा आकुल रहता है । और यदि कदाचित् मनुष्य या देव हुआ तो प्रथम तो भोग विलासमें ही अपना जीवन बिता देता है। यदि काललब्धिके आजानेसे धर्मको जान भी लेता है तो स्त्री-पुत्र के मोहमें पड़कर धर्मका आचरण नहीं करता ॥ ४२६ ॥ आगे दृष्टान्तके द्वारा मोही जीवका उपहास करते हुए धर्मका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जैसे यह जीव स्त्री पुत्र सौरहसे तथा कामभोग से प्रेम करता है वैसे यदि जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मसे प्रीति करे तो लीलामात्र से ही सुखको प्राप्त कर सकता है । भावार्थ आचार्य कहते हैं कि स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, बन्धु, मित्र आदि कुटुंबीजनोंसे तथा धन, धान्य, मकान, वख, अलंकार आदि परियइसे व कामभोगसे यह जीव जितना प्रेम करता है वैसा प्रेम यदि वीतराग सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए धर्मसे करे तो उसे १ म जीओ। २व (१) भ स रई ! ३ ब भोसु । कार्त्तिके० ४१ ४ प जिणंद 1
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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