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________________ ३२२ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा लच्छि छेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ । बीएण विणा कत्थ वि किं दीसदि सस्स - णिष्पत्ती ॥ ४२८ ॥ [ गा० ४२८ [ छाया-लक्ष्मी वाञ्छति नरः नैषं सुधर्मेषु आदरे करोति । बीजेन बिना कुत्र अपि किं दृश्यते सस्यनिष्पत्तिः ॥ ] नरः पुमान् जनोमा लक्ष्मी वाञ्छति अश्वगजरथपदातिधनधान्यसुवर्णरत्नादिसंपदाम् इन्द्रवरणेन्द्रचक्रवर्त्यादिवैभवं वा ते आकांक्षति अभिलषति । सुधर्मेषु पूर्वापर विरोधरहित जिन कथितषेषु अतिश्रावक मेदभिन्नधर्मेषु नरः जनः आदरम् उद्यमम् अनुष्टानं नैव कुरुते विदधाति नैव । धर्म विना तो लक्ष्मीं कथं लभते इत्यत्रोदाहरणेन दृष्टान्तेन युनक्ति । कत्थ वि कुत्रापि धान्यनिष्पतिक्षेत्र केदारभूम्यादी बीजेन विना ब्रीहिगोधूमचणकमुद्रयवादिधान्यवपनं विना सस्मनिष्पत्तिः धान्योत्पत्तिः श्रीयादिसमुद्भवः किं दृश्यते अवलोक्यते किम् अपि तु न, तथा धर्म विना संपदा न दृश्यते । तथा च । तं पुष्णह अहिषार्थी हिला रही हु तं पावह परिणाम जं गुणवंत भिक्खडी” ॥ ४२८ ॥ अथ धर्मस्थो जीवः किं किं करोतीति गामाद्वयेनाह - जो धम्मत्थो जीवो सो रिङ-वग्गे वि कुणइ खम-भावं । ता पर-दवं वज्जइ जणणि समं गणइ पर-दारं ॥ ४२९ ॥ [ छाया-यः धर्मस्थः जीवः स रिपुवों अपि करोति क्षमाभावम् । तावत् परद्रव्यं वर्जयति जननीसमं गणयति परदारान् ॥ ] स जीवः करोति कम् । क्षमाभावं क्षान्तिपरिणाम क्रोधादिकषायाणामुपशान्तिम् क रिपुवर्गे शत्रुसम यः क्षमाभावं करोति, अपिशब्दात् मित्रखजनादिवर्गे । स कः । यः धर्मस्थः धर्मे पूर्वोदशलाक्षणिके नृपे तिष्ठतीति धर्मस्थः, यावत् जिनधर्मे स्थितः जीवः सा तावत्कालं परद्रव्यं वर्जयति परेषां रत्नसुवर्णमणिमाणिक्यधनधान्यत्रादिकं वस्तु परिहरति । तथा परदारान् परेष! युवतीः जननीसमाः मातृतुल्याः खससमानाः सदृशाः गणयत्ति मनुते जानाति ॥ ४२९ ॥ अनायासही स्वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त हो सकता है। कहा भी है-धनसम्पत्ति तथा रूपवती तरु गियोंमें तेरी जैसी रुचि है वैसी रुचि यदि जिनवर भगवानके कहे हुए धर्ममें हो तो मुक्ति तेरी हथेली पर रक्खी हुई है || ४२७ ॥ आगे कहते हैं कि लक्ष्मीको चाहना सुलभ है किन्तु धर्मके बिना उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं है। अर्थ यह जीव लक्ष्मीको तो चाहता है किन्तु सुधर्मसे प्रीति नहीं करता । क्या कहीं बिना बीजकेमी धान्यकी उत्पत्ति देखी गई है ? || भावार्थ - घोडा, हाथी, रथ, धन, धान्य, सुवर्ण, वगैरह सम्पदाकी तथा इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती वगैरह वैभवकी तो यह जीव इच्छा करता है, किन्तु सचे धर्मका पालन करना नहीं चाहता। ऐसी स्थितिमें धर्मके बिना उस लक्ष्मीको वह कैसे प्राप्त कर सकता है? क्या कहीं बिना बीजके गेहूं, चना, मूंग, उड़द वगैरह पैदा होता देखा गया है ? अतः जैसे बिना भीजके धान्य पैदा नहीं होता वैसेही बिना धर्म किये लक्ष्मीकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ ४२८ ॥ आगे धर्मात्मा जीव क्या २ करता है यह दो गाथाओंसे बतलाते हैं । अर्थ - जो जीव धर्मका आचरण करता है, वह शत्रुओं पर भी क्षमा भाव रखता है, पर ये इव्यको ग्रहण नहीं करता, और पराई स्त्रीको माताके समान मानता है । भावार्थ-धर्मात्मा जीव अपने मित्र वगैरह स्वजनों की तो बात ही क्या, अपने शत्रुओंपर मी क्रोध नहीं करता । तथा पराये रक्त, सुवर्ण, मणि, मुक्ता और धन धान्य वस्त्र वगैरहको पानेका प्रयत्न नहीं करता । और दूसरोंकी कियोंपर कभी कुदृष्टि नहीं डालता, उन्हें अपनी माता और बहिन के तुल्य समझता है || ४२९ ॥ १ लच्छी २ ग आइयं । ३ ब दीसह । ४ (१) म परयारं । |
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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