SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२८व्यवतिष्ठते, खरविषाणवत्, बन्ध्यासुतषत् , गगनकुसुमवत् । एनम् अर्थक्रियाकारित्वाभावे नित्यम् आत्माविवस्तु कर्थ कार्य करोति चेत् , यस्कार्य न करोति तदेव वस्तु न स्यात् ॥ २२७ ॥ पाय-मित्तं तच्चं विणस्सरं खणखणे वि अण्णणं । अण्णइ-दध-विहीणं ण य कजं किं पि साहेदि ॥ २२८ ॥ [छाया-पर्यायमात्रं तवं विनश्वर क्षणे क्षणे अपि अन्यत् अन्यत् । अन्वयिद्रव्यविहीन न च कार्य किम् अपि साधयति ॥] यदि तत्वं जीचा दिवस्तु, पर्यायमात्र मतिज्ञानादिपर्यायरूपं, जीवद्रम्यविहीनं मृद्रव्यविहीनं च, शिवकस्थासकोशकसूलघटकपालाविरूप, क्षणे क्षणेऽपि समये समयेऽपि, अन्योन्यै परस्परम् अन्वयिद्रव्यविहीनम् , अन्वयाः शिवकस्थासकोशकुसूलादयः ते विद्यन्ते यस्य तत् अन्वयि तच्च तद्न्य च, तेन विहीने जीवादिद्रव्यविहीन विनश्वर प्रतिसमय चिनाशि अझीकियते चेत्, तर्हि तन्यं किमपि कार्य न साधयति । तदुक्तमध्यमस्याम्। 'संतानः समुदायश्च साधये च निराशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वन स्यादेकत्वनिये ॥ इति ॥ २२८ ॥ अथ नियैकान्वे क्षणिककाम्ते च कार्याभावं निमालेकासे परमावशी .... णवणव-कज-विसेसा तीसु वि कालेसु होति वत्थूणं । एकेकम्मि य समये पुखुसर-भावमासिज ॥ २२९॥ [छाया-नवनवकार्यविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम् । एकैकस्मिन् समये पूर्वोत्तरभावमासाद्य ॥ ] पस्तूला जीमादिद्रव्याणां पदार्थानां त्रिवपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानसमयेषु नवनवकार्यविशेषाः उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति न होनेसे वह वस्तु कुछ भी कार्य न कर सकेगी; क्योंकि कुछभी कार्य करनेसे यस्तुमें परिणमन अवश्य होगा और परिणमनके होनेसे घस्तु सर्वथा निस्य नहीं रहेगी। अतः नित्य वस्तुमें अर्थक्रिया सम्भव नहीं है ।। २२७ ॥ आगे सर्वथा क्षणिक वस्तुमें अर्यक्रियाका अभाव बतलाते हैं ॥ अर्थ-क्षण क्षणमें अन्य अन्य होने बाला पर्यायमात्र विनश्चर तत्त्व, अन्वयी द्रव्यके बिना कुछभी कार्य नहीं कर सकता ॥ भावार्थ-यदि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एक द्रव्यको न मानकर केवल पर्यायमात्रको ही माना जायेगा अर्थात् मति ज्ञानादि पर्यायोंको ही माना जाये और जीव द्रव्यको न माना जाये, या मिट्टीको न माना जाये और स्थास, कोश, कुसूल, घट, कपाल आदि पर्यायोंको ही माना जाये तो बिना जीव द्रव्यके मत्यादि पर्याय और बिना मिट्टी स्थास आदि पर्याय हो कैसे सकती हैं ! इसीसे आतमीमांसामें कहा है कि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एकत्व को न माननेपर सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, पुनर्जन्म वगैरह कुछ भी नहीं बन सकता । इसका खुलासा इस प्रकार है-एक वस्तुकी कमसे होने वाली पर्यायोंकी परम्पराका नाम सन्तान है । जब एकत्वको नहीं माना जायेगा तो एक सन्तान कैसे बन सकेगी ! जैसे एकत्व परिणामको न माननेपर एक स्कन्धके अवयवोंका समुदाय नहीं बन सकता वैसेही सदृश परिणामोंमें एकत्वको न माननेपर उनमें साधर्म्य भी नहीं बन सकता । इसी तरह इस जन्म और परजन्ममें रहने वाली एक आत्माको न माननेपर पुनर्जन्म नहीं बनता तया देन लेनका व्यवहारभी एकल्बके अभावमें नहीं बन सकता; क्योंकि जिसने दिया और जिसने लिया वे दोनों तो उसी क्षण नष्ट हो गये, तब न कोई देनेवाला रहा और न कोई लेनेवाला रहा । अतः नित्यैकान्तकी तरह क्षणिकैकान्तमें भी अर्थक्रिया नहीं बनती ।। २२८॥ भागे अनेकान्तमें कार्यकारणभावको बतलाते हैं। अर्थ-वस्तुओंमें तीनों ही कालोंमें प्रति समय पूर्व १ग अणा- २ ब-पुस्तके गायेयं नास्ति। ३गनीस्म । ४ म भावमासन । ..-- ..
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy