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________________ ३७४ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० ४८२प्रामानन्तचतुयाय सौम्याय शान्ताय मालबरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा । तथा । "सरेन्तुमण्डलाकार पुण्डरी मुखोदरे । दलाष्टकसमासीनं वर्णाष्टकविराजितम् ॥ ओं णमो अरहताणमिति वानपि कमात् । एकशः प्रतिचं तु तमिमेव निवेशयेत् ।। स्वर्णगौरी खरोद्भूतां केसराली ततः स्मरेत् । कर्णिकां च सुधास्यन्दबिन्दुवजविभूषिताम् ॥ (अकारादि) प्रोद्यत्संपूर्णचन्दाभ चन्द्रबिम्बाच्छनैः शनैः। समागच्छत्सुधाबीज मायावणं तु चिन्तयेत् ॥ विस्फुरन्तमतिस्फीत प्रभामण्डलमध्यगम् । संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि ॥ ह्रीं ॥ भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे । छेदयन्तं मनोवान्तं सवन्तममृताम्युभिः ॥ वजन्तं ताठुरन्त्रेण स्फुरन्तं भूलतान्तरे । ज्योतिर्भयमिवाचिन्त्य प्रभाव चिन्तयन्मुनिः ।।" 'थों गमो धरहताण इमे अष्टौ वर्णाः । ह्रीं । इमं महामन्त्रं स्मरन् योगी विषनाशसर्वशास्त्रपारगो भवति । निरन्तराभ्यासात् षद्भिर्मासर्मुखमध्यात धूमवति पश्यति । ततः संवत्सरेण मुखान्मझज्यालो निःसरन्ती पश्यति । तत: सर्वशमुखम् । ततः सर्वशं प्रत्यक्ष पश्यति । य: 'वी' इति ध्यायति ललाटे स सकलकल्याणं प्राप्नोति । तथा। ओं ह्रीं । ह्रीं ओं ओं ही हैसः॥ अई॥श्रीझी ओं सः। श्री है ओं ह्रीं ॥ ही ओं ओं ह्रीं ॥ छ। श्री। विद्या च। ओं जोमे मग्गे तो भए भब्वे भविस्से अक्थे पक्खे -जिणपारिस्से वाहा। ओं ह्रौं अहं णमो अरहताणं ह्रीं नमः ॥ छ । श्रीमदू 'ओं ह्रीं श्रीं भई नमः; णमो सिद्धाणं, और 'ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तविशुद्धपरिणामिपुरदुलारा गानामिनी जमीशाय प्रालयलचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मंगलवरदाय अष्टादशदोषरहिताय खाहा' इन मंत्रोंका ध्यान करना चाहिये । मुखमें चन्द्रमण्डलके आकारका आठ अक्षरोंसे शोभायमान, आठ पत्रोंका एक कमल चिन्तन करना चाहिये । 'ओं णमो अरहताणं' इन आठ अक्षरोंको क्रमसे इस कमलके आठ पत्रोंपर स्थापन करना चाहिये । इसके पश्चात् अमृतके मरनोंके बिन्दुओंसे शोभित कर्णिकाका चिन्तन करे और इसमें स्वरोंसे उत्पन्न हुई तथा सुवर्णके समान पीतवर्ण वाली केशरकी पंक्तिका ध्यान करना चाहिये ।। फिर उदयको प्राप्त हुए पूर्ण चन्द्रमाकी कान्तिके समान और चन्द्रबिम्बसे धीरे धीरे आनेवाले अमृतके बीज रूप मायावर्ण 'ही' का चिन्तन करना चाहिये ॥ स्फुरायमान होते हुए, अत्यन्त उज्वल प्रभामण्डलके मध्यमें स्थित, कभी पूर्वोक्त मुखक्रमलमें संचरण करते हुए, कभी उसकी कर्णिकाके ऊपर स्थित, कभी उस कमलके आठों — पत्रोंपर घूमते हुए, क्षणभरमें आकाशमें विचरते हुए, मनके अज्ञानान्धकारको दूर करते हुए, अमृतमयी जलसे टपकते हुए, तालुके छिद्रसे गमन करते हुए तथा भौंकी लगाओंमें स्कुरायमान होते हुए और ज्योतिर्मयके समान अचिंत्य प्रभाववाले मायावर्ण 'ही' का चिन्तन करना चाहिये । इस महामंत्रका ध्यान करनेसे योगी समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो जाता है । छमासतक निरन्तर अभ्यास करनेसे मुखके अन्दरसे धूम निकलते हुए देखता है । फिर एक वर्ष तक अभ्यास करनेसे मुखसे निकलती हुई महाज्वाला देखता है। फिर सर्वज्ञका मुख देखता है । उसके बाद सर्वज्ञको प्रत्यक्ष देखता है। इस प्रकार, मुखकमलमें आठ दलके कमलके ऊपर 'ओं णमो अरिहंताणं' इन आठ अक्षरोंको स्थापन करके ध्यान करनेके फलका वर्णन किया । अब अन्य विद्याओंका वर्णन करते हैं। जो ललाट देशमें 'वी' इस विद्याका ध्यान करता है वह सब कल्याणोंको प्राप्त करता है । ही ओं ओं ही है सः ओं जोगे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भनिस्से अक्खे एक्खे जिणपारिस्से स्वाहा' 'ओ हो गई नमो णमो अरहताण ही नम , 'श्रीमद् वृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नमः,' इस मंत्रोंका भी ध्यान करना
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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