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११. धर्मानुप्रेक्षा अरईत ॥ "वर्णद्वय श्रुतस्कन्धे सारभूत शिवप्रदम् । ध्यायेजन्मोवाशेषलेशनिर्मूलनक्षमम् ॥ "सिद्ध 'अईवा ।। "अवर्णस्य सहसा जपमानन्दसमृतः । प्राप्नोत्लेकोपवासस्य निर्जरा निर्जिताशयः॥ ' तथा "आदिम चाईतो नाम्रोऽकार पवशतप्रमान् । वारान् जपेत् त्रिशुज्या यः स चतुर्थफलं श्रयेत् ।। ॥ “पश्चवर्णमयी विद्यो पञ्चतत्वोपलक्षिताम् । मुनिवीरेः श्रुतस्कन्धाद्वीजबुग्या समुद्धताम् ॥ 'ओं हो ही हूँ ह्रौं है: असि आउ साय नमः । “अस्थां निरन्तराभ्यासासीकृतनिजाशयः । प्रोच्छिनत्याशु निःशको निर्गु जन्मबन्धनम् ।।" "मालशरणोत्तमपदनिकुरम्यं यस्तु संयमी स्मरति । अकि कलमेकाप्रधिया स चापवर्गनिय श्रयति ॥ चनारि मंगलं, अरहत मंगल, सिद्ध मंगल, साहु मंगल, केवलिपष्णतो धम्मो मंगलं। चनारि लोगोत्तमा, अरहंत लोगोसमा, सिद्ध लोगोतमा, साहु लोगोशमा, फेवलिपण्णत्तो धम्मो लोगोनमो। चत्तारि सरण पवजामि, अरईत सरण पत्रवामि, सिद्ध सरणं पब्बजामि, साहु सरणे एवजामि, केवलिपण्णतो धम्मो सरणं पव्वजामि । "सिद्धः सौध समारोमिय सोपानमालिका । त्रयोदशाक्षरोपमा विद्या विश्वातिशायिनी ॥" 'ओं, अरहत सिद्ध योगि केदली स्वाहा'। यो भन्यः इमम् ऋषिमण्डलमत्रराज सप्तविंशतिवर्णोपेतम् 'ओं मंही है है हैं ह्रौं : असिआउसासम्यग्दर्शनशानचारित्रेभ्यो नमः।" इति ध्यायति जपति सहस्राष्टकम् | ८००० । स वाल्छितार्थम् इहपरलोकसुखसोभीष्ट प्राप्नोति । तथा ओं ही श्री अहे नमः । नमः सिद्धाणं । ओं नमो अर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्तविशुद्धपरिणामविस्फुरदुरुशुकभ्यानामिनिर्दधर्मयीन
उत्पन्न सोलह अक्षरोंके मंत्रका भी जप करना चाहिये। वह मंत्र है-'अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुम्यो नमः' । जो ध्यानी मनको एकाग्र करके दो सौ बार इस मंत्रका जप करता है वह नहीं चाहते हुएमी एक उपवासके फलको प्राप्त करता है || 'अरहंत सिद्ध' अथवा 'अरईत साक्षु' इन छ अक्षरोंके मंत्रको तीन सौ बार जप करनेवाला मनुष्य रक उपवासके फलको प्राप्त होता है । 'अरहत' इन चार अक्षरोंके मंत्रको चार सौ बार जप करनेवाला मनुष्य एक उपवासके फलको प्राप्त होता है ॥ 'सिद्ध' अथवा 'आई' यह दो अक्षरोंका मंत्र द्वादशांगका सारभूत है, मोक्षको देनेवाला है और संसारसे उत्पन्न हुए समस्त क्लेशोंको नष्ट करनेमें समर्थ है । इसका ध्यान करना चाहिये ॥ जो मुनि 'अ' इस वर्णका पाँच सौ बार जप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है ॥ जो मन वचन कायको शुद्ध करके पांच सौ बार 'अर्हत्' के आदिअक्षर 'अ' मंत्र का जाप करता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त करता है। पाँच तत्वोंसे युक्त तथा पांच अक्षरमय 'ओं हां ही हूं ह्रौं हः अ सि आ उ साय नमः' इस मंत्रको मुनीश्वरोंने द्वादशांग वाणी से सारभूत समझकर निकाला है । इसके निरन्तर अभ्याससे पति कठिन संसाररूपी बन्धन शीघ्र कट जाता है | जो मुनि 'चत्तारि मंगलं, अरहता भंगलं, सिद्धा मंगलं, साडू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरहता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुतमा, साहू लोगुसमा, केवलिपपणत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरहतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहूसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धर्म सरण पन्चजामि ।' एकाग्र मनसे इन पदोंका स्मरण करता है वह महालक्ष्मीको प्राप्त करता है || ॐ अईत् सिद्ध सयोग केवली वाहा' यह तेरह अक्षरोंका मंत्र मोक्ष महलपर चढ़नेके लिये सीढ़ियोंकी पंक्ति है || 'ओ हो ही हूं हें है ही हः असि आ उ साप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस सत्ताईस अक्षरोंके ऋषिमण्डल मंत्रको जो मन्य पाठ हजार बार जपता है वह इस लोक और परलोकमें समस्त वाञ्छित मुखको पाता है। तथा