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७२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ४८२"पसगुरुनमलारलक्षण मन्त्रमूचितम् । चिन्तयेच जगजन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ॥" “स्फुरद्विमलचन्द्रामे दलाष्टकविभूषिते। कर तत्कर्णिकासीनं मन सप्ताक्षरं स्मरेत् ॥" "दिग्दरेषु ततोऽन्येषु विदिक्पत्रेष्वनुक्रमात् । सिद्धादिक चतुष्क च दृष्टियोचादिक सधा ।। ओं णमो अरहताण, णमो सिद्धाणं, पमो आइरियाण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सम्बसाहूर्ण । अपराजितमन्नोऽयं दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि । “त्रियमायन्तिकी प्राप्ता योगिनो ये च केचन । अमुमेव महामन्त्र समाराध्य केवलम् ॥" "अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तवः पापपङ्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवलेशान्मनीषिणः ॥" "एत. व्यसनपाताले भ्रमत्संस्करसागरे । अनेनैव जगत्सर्वमुत्य विधृतं शिवे ॥" "कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च। अमं मन्नं समाराध्य तिर्ययोऽपि दिवं गताः ॥" तथा यो भव्यः मस्तके भालस्थले मुखे काठे हृदये नाभौ च प्रत्येकमष्टदलकमल तन्मध्ये कर्णिका विधाय प्रत्येक पचनमस्कारान् पञ्चत्रिंशद्वर्णोपेतान् कमल प्रति नवसंख्योपेतान् जपेत् चिन्तयति। अवरोहणारोहणेन द्वादशकमलेषु एकीकृताः नमस्काराः अष्टोत्तरशतप्रमा भवन्ति । तत्फलमाह । “शतमष्टोनर चास्य त्रिशच्या चिन्तयन्मुनिः । मुसानोऽपि चतुर्थस्य प्रामोत्यविकलं फलम् ॥" "मस्तके वदने कण्ठे हृदये नाभिमण्टले। ध्यायेमन्द्रकलाकारे योगी प्रत्येकमम्बुजम् ।।" "स्मर मत्रपदोद्भूतौ महाविद्या जगवताम् । गुरूपकनामोत्थषोडशाक्षरराजिताम् ॥ "अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः।" षोडशाक्षरविद्या ! "अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपन्नेकाममानसः 1 अनिच्छाप्यवाप्नोति चतुर्थतपसः पालम् ॥” “विद्यां षड्वर्णसंभूनामजयो पुण्यशालिनीम् । जपन चतुर्थमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ॥" 'अरहंतसिद्ध' अथवा 'अरहंत साहु ॥ " चतुर्वर्णमयं मत्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतुःशतीं जापन योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥"
मंत्रका ध्यान करता है वह कर्माका क्षय करके मोक्षसुखको पाता है । जो भव्य 'अहं' इस मंत्रको अथवा सूक्ष्म चन्द्ररेखाके समान हकार मात्रका चिन्तन करता है वह खगों में महर्दिक देव होता है। जो भव्य पंचपरमेष्ठीके प्रथम अक्षरोंसे उत्पन्न ॐ का चिन्तन अपने हृदयकमलमें करता है वह सब सुखों को पाता है । इस मंत्रराज ॐ को शत्रुका स्तम्भन करनेके लिये सुवर्णके समान पीला चिन्तन करे । द्वेधके प्रयोगमें कजलकी तरह काला चिन्तन करे, वशीकरण के प्रयोगमें लालवर्णका चिन्तन करे, और पापकर्मका नाश करनेके लिये चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका चिन्तन करे ॥ तथा पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करने रूप महामंत्रका चिन्तन करे। यह नमस्कार मंत्र जगतके जीवोंको पवित्र करने में समर्थ है ।। स्फुरायमान निर्मल चन्द्रमाके समान और आठ पत्रोंसे भूषित कमलकी कर्णिका पर सात अक्षरके मंत्र णमो अरिहंताण'का चिन्तन करे । और उस कर्णिकाके आठ पत्रोंमेंसे ४ दिशाओंके ४ पत्रोंपर क्रमसे 'णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण' णमो उवमायाणं' 'णमो लोए सबसाहूण' इन चार मंत्रपदोंका स्मरण करे । और विदिशाओंके ४ पत्रोंपर क्रमसे 'सम्यग्दर्शनाय नमः 'सम्यग्ज्ञानाय नमः' 'सम्यक् चारित्राय नमः' 'सम्यक् तपसे नमः', इन चार पदोंका चिन्तन करें || इस लोकमें जितने मी योगियोंने मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया उन सबने एकमात्र इस नमस्कार महामंत्रकी आराधना करके ही प्राप्त किया । पापी जीव इसी महामंत्रसे विशुद्ध होते हैं । और इसी महामंत्रके प्रभावसे बुद्धिमान् लोग संसारके केशोंसे छूटते हैं । दुःखरूप पातालोंसे भरे हुए संसाररूपी समुद्र में भटकते हुए इस जगतका उद्धार करके इसी मंत्रने मोक्षमें रखा है ॥ हजारों पापोंको करके और सैकड़ों जीवोंको मारकर तिर्यश्वभी इस महामंत्रकी आराधना करके खर्गको प्राप्त हुए ।। मस्तक, भालस्थान, मुख, कण्ठ, हृदय और नाभिमसे प्रत्येकमें आठ पत्तोंका कमल
और उसके बीचमें कर्णिकाकी रचना करके प्रत्येक कमलपर पैतीस अक्षरके पंच नमस्कार मंत्रको नौ बार जपना चाहिये। इस प्रकार ऊपरसे नीचे और नीचेसे ऊपर बारह कमलोंपर जपनेसे १०८ बार जाप हो जाती है । जो मुनि मन वचन और कायको शुद्ध करके इस मंत्रको १०८ पार ध्याता है वह मुनि आहार करता बुआमी एक उपवासके पूर्ण फलको प्राप्त होता है ॥ पंच नमस्कार मंत्रके पाँच पदोंसे