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१२. धर्मानुमेक्षा
भव्याः नाभिमण्डले घोडशदलयुक्तकमले दल दल प्रति षोडशखरश्रेणि भ्रमन्ती चिन्तयेत् 1 अ आ
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ल लए ऐ ओ औ अं तथा हृदये चतुर्विशतिपत्रसंयुक्तकमले पञ्चविंशतिककारादिमकारान्तान् व्यजनान् स्मरेत् । कस गाजम जाट ठ ड ढ ण । त थ द ध न । प फ ब भ म । ततः वदनकमलेऽष्टदलसहिते शेषयकाराविहकारान्तान् वर्णान् प्रदक्षिण चिन्तयेत् । "इमो प्रसिद्धसिद्धान्तप्रसिद्धो वर्गमातृकाम् । ध्यायेद्यः स बुताम्भोधेः पारं गच्येच तत्फलात ॥" "अथ मनपदाधीश सर्वतस्वैकनायकम् । आदिमध्यान्तभेदेन खरव्यजनसंभवम् ॥ अर्धाधो रेफसरुव सफल बिन्दुलाञ्छितम् । अनाइसयुत तस्वं मत्रराज प्रचक्षते ॥" है । “देवासुरनतं मिथ्यादुधवान्तभास्करम् । शुभमूर्धस्थचन्द्राभुकलापण्याप्तदिग्मुखम् ॥" "हेमाजकर्णिकासीनं निर्मलं दिक्षु खाणे । संचरन्त च चन्दाभ जिनेन्द्रतुल्यमूर्जितम् ॥" "ब्रह्मा कैश्चिरिः कैश्चिबुद्धः कश्चिन्महेश्वरः । शिवः सार्वस्तथैशानो वर्गोऽय कीर्तितो महान् ॥" "माश्रमूर्ति किलादाय देवदेवो जिनः स्वयम् । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः साक्षादेष व्यवस्थितः ॥" "ज्ञानपी जगद्वन्ध जन्ममृत्युजरापहम् । अकारादिहकारान्त रेफविन्दुकलाङ्कितम् ॥" "भुक्तिमुत्यादिदातार सवन्तममृताम्बुभिः । मकराजमिद ध्यायेत् धीमान विश्वसुखावहम् ॥"नासाग्रे निश्चल बापि धूलतान्ते महोज्वलम् । तालुरन्ध्रेण वा यातं विग्रन्तं वा मुखाम्बुजे ॥" "सकृदुच्चारितो येन मन्त्रोऽय वा स्थिरीकृतः । हदि तेनापवर्गाय पाथेयं स्वीकृत परम् ॥” इमं महामन. राज यो ध्यायति स फर्मक्षयं फूला मोक्षसुखं प्राप्नोति । अई। तथा इकारमानं सृश्मवन्द्ररेखासरशं शान्तिकारण यो भव्यः चिन्तयति स स्वर्गेषु क्षेत्रो महर्द्विको भवेत् । यो भव्य भोंकार पचपरमेष्टिप्रथमाक्षरोत्पर्य देदीप्यमानं चन्द्रकलाविन्दुना सितवर्ण धर्मार्थकाममोक्ष हृदयकमलकर्णिकामध्यस्थ चिन्तामणिसमान चिन्तयति स भव्यः सर्वसौख्य लभते । मों, इम मन्द्रराज शत्रुस्तम्भने सुवर्णाभ, विद्वेषे कृष्णाभ, वशीकरणे रक्तवर्ण, पापनाशने शुभ्रं, सर्वकार्यसिद्धिकरं चिन्तयेत् ॥ तथा,
सोलह पत्रवाले कमलके प्रत्येक दलपर अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ मं अः इन सोलह खरोंका कमसे चिन्तन करो। फिर हृदयमें चौबीस पत्तोंसे युक्त कमलके ऊपर क ख ग घ ङ, च छ जस स, ट ठ ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ ग, इन ककारसे लेकर मकार तक पच्चीस व्यंजनोंका चिन्तन करो। फिर आठ दल सहित मुखकमलपर बाकीके यकार से लेकर हकार पर्यन्त वर्गोंको दाहिनी ओर से चिन्तन करो। सिद्धान्तमें प्रसिद्ध इस वर्ण मातृकाका जो ध्यान करता है वह संसारसमुद्रसे पार हो जाता है । समस्त मंत्रपदोंका खामी सब तत्त्वोंका नायक, आदि मध्य और अन्तके भेदसे खर तथा व्यंजनोंसे उत्पन्न, ऊपर और नीचे रेफसे युक्त, बिन्दुसे विहित हकार (है) बीजाक्षर है। अनाहत सहित इस बीजाक्षरको मंत्रराज कहते हैं । देव और असुर इसे नमस्कार करते हैं, भयंकर अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये वह सूर्य के समान है । अपने मस्तकपर स्थित चन्द्रमा (-) की किरणों से यह दिशाओं को व्याप्त करता है। सुवर्णकमलके मध्यमें कर्णिकापर विराजमान, निर्मल चन्द्रमाकी तरह प्रकाशमान, और आकाशमें गमन करते हुए तथा दिशाओंमें व्याप्त होते हुए जिनेन्द्र देवके तुल्य यह मंत्रराज है। कोई इसे ब्रह्मा कहता है, कोई इसे हरि कहता है, कोई इसे बुद्ध कहता है, कोई महेश्वर कहता है, कोई शिव, कोई सार्व और कोई ईशान कहता है । यह मंत्रराज ऐसा है मानो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्ति देवाधिदेव जिनेन्द्र स्वयं ही इस मंत्ररूपसे विराजमान हैं ॥ यह ज्ञानका बीज है, जगतसे वन्दनीय है, जन्म मृत्यु' और जराको हरनेवाला है, मुक्तिका दाता है, संसारके सुखोंको लाता है, रेफ और बिन्दुसे युक्त अहं इस मंत्रका ध्यान करो । नासिकाके अग्र भाग में स्थिर, भौहोंके मध्यमें स्फुरायमाण, तालुके छिद्रसे जाते हुए और मुखरूपी कमलमें प्रवेश करते हुए इस मंत्रराजका ध्यान करना चाहिये । जिसने एक बार मी इस मंत्रराजको उच्चारण करके अपने हृदयमें स्पिर करलिया, उसने मोक्षके लिये उत्तम कलेवा ग्रहण कर लिया । आशय यह है कि जो इस महा