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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८२भर्मध्यानमुच्यते १ । पश्चपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलश्रुतानुष्ठानं बहिरजधर्मध्यानं भवति । तथा पदस्थ पिण्डस्थरूपस्थरूपातीतं चतुर्विधं ध्यानमाभ्यन्तरं धर्म्यं कथ्यते । “पदस्थ मन्त्रवाक्यस्थ पिण्ड खात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वविद्रूपं रुपातीत निरजनम् ॥” इति धर्मध्यानं विचित्रं शातव्यम् ॥ " पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थं मर्त ध्यानं विचित्रनयपारगः ॥" तद्यथा । " पणतीससोलछप्पण चदुदुरामेगं च जवह झाएह परमेद्विवाचयाणं अष्णं च गुरुवएसेण ॥" "गमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सबसाहूणं ।' एसानि पक्षशिदक्षराणि सर्वपदानि भण्यन्ते ३५ । 'अरहंत सिद्धभायरियवज्यायसाहू ।' वा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो तानि । 'सिद्ध' एतानि षडक्षराणि अर्द्धसिद्धयोर्नामपदे द्वे भण्ये ६ । पण, 'अभिसा' एतानि पञ्चाक्षराण्यादिपदानि भण्यन्ते ५ । चदु, 'अरहंत' इदमक्षर चतुष्टयमर्हतो नामपदम् । युग, 'सिद्ध' 'गर्द' वा इत्यचरद्वयस्य सिद्धस्य अर्द्धतो वा नामादिपदम् २ | 'अ' इत्येकाक्षरमईत आदिपदम् अथवा 'ओ' इत्येकाक्षरं पचपरमेष्ठिनामादिपदम् । तत्कथमिति चेत् । " अरहंता असरीरा आयरिया तह उवमया मुणियो । पढमक्खर णिप्पण्णी ओंकारों पंचपरमेट्ठी ॥" "सवर्णे सह वर्षः, उ ओ, मोनुखारः' इत्यादिना निष्पद्यते । एतेषां पानां सर्वमवादपदेषु मध्ये सारभूतानामिह लोकपर लोकेष्ट फल प्रदानाम् अर्थ ज्ञात्वा पश्वादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोधारणेन च जपं कुरुत । तथैव शुभोपयोगरूपत्रिगुप्तावस्थायां मोनेन ध्यायत | पुनरपि कथंभूतानां पचपरमेष्ठिवाचकानाम् । अनन्तज्ञानादिगुणयुकोऽर्हद्वाच्योऽभिधेयः इत्यादिरूपेणार्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधुवाचकानाम् । अन्यदपि द्वादशसहस्रमितपञ्चनमस्कारग्रन्थ कथितक्रमेण लघुसिद्धच बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानम् । तथाहि । यो आनन्दसे भरपूर अपनी आत्मामें उपादेयबुद्धि करके पुनः 'मैं अनन्त ज्ञानवाला हूँ 'मैं अनन्त सुखखरूप हूँ इत्यादि भावना करना आभ्यन्तर धर्मध्यान है । और पंच परमेष्ठी में भक्ति रखना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना बहिरंग धर्मध्यान है । धर्मध्यानके चार भेद और भी हैं। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । ये चारों धर्मध्यान आभ्यन्तर हैं । पवित्र पर्दोका आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थध्यान कहते हैं । द्रव्यसंग्रह में कहा है-"परमेष्ठी के राचक पैंतीस, सोलह, छ, पाँच, चार, दो और एक अक्षर के मंत्रोंको जपो और ध्याओ । तथा गुरुके उपदेशसे अन्य मंत्रोंको मी जपो और याओ" । 'णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्बसाहूणं ।' यह पैंतीस अक्षरोंका मंत्र है । 'अरहंतसिद्ध आयरिय उवज्झाय साहू' अथवा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः' यह मंत्र सोलह अक्षरोंका है । 'अरहंत सिद्ध' यह छः अक्षरोंका मंत्र है। 'अ सि आ उ सा' यह पाँच अक्षरका मंत्र है। 'अरहंत' यह चार अक्षरोंका मंत्र है। 'सिद्ध' अथवा 'अहं' ये दो अक्षरोंके मंत्र हैं। 'अ' यह एक अक्षरका मंत्र भईन्तका वाचक है । अथवा 'ओ' यह एक अक्षरका मंत्र पंचपरमेष्ठीका वाचक है। कहामी है- 'अरहंत, असरीर (सिद्ध) आचार्य, उपाध्याय और मुनि ( साधु ) इन पाँचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षरों को लेकर मिलानेसे ( अ + अ + आ + उ +मू) पंचपरमेष्टीका याचक 'ओ' पद' बनता है।' ये मंत्र सब मंत्रों में सारभूत हैं तथा इस लोक और परलोकमें इष्ट फलको देनेवाले हैं । इनका अर्थ जानकर अनन्स ज्ञान आदि गुणोंका स्मरण करते हुए और मंत्रका उच्चारण करते हुए जप करना चाहिये । तथा शुभोपयोग पूर्वक मन, वचन और कायको स्थिर करके मौनपूर्वक इनका इन मंत्रोंके सिवाय बारह हजार प्रमाण पंचनमस्कार ग्रन्थमें कही हुई विधिसे ध्यान करना चाहिये । लघुसिद्धचक्र बृहत्सद्ध आदि विधाममी करना चाहिये। इस सिद्धचक्र ध्यानकी विधि इस प्रकार है-नाभिमण्डलमें 1 |
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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