SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५८२ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३६९ तोपमादभूच्छेमजन्मनो जीवस्य भवाद्भवान्तरसंक्रमणे इषुग तिपाणिमुकाला टिकागो मूत्रिकाः चेति । तत्र इघुगतिर विश्रद्धा एकसामयिकी ऋवी संसारिणां सिद्धानां च जीवानां भवति । पाणिमुका एक विग्रहा द्विसामयिकी संसारिर्णा भवति । लाङ्गलिका द्विविग्रहा वैमामयिकी भवति । गोमूत्रिका त्रिविग्रहा चनुःसामयिकी भरति । एवमनादिसंसारे भ्रमतो जीवस्य गुणविशेषानुपलब्धिस्तस्य भवसंक्रमणं निरर्थकमित्येवमादिभवन्तंक्रमणदोषानुचिन्तनं वा चतुर्गतिमभ्रमणयोनिचिन्तनं भवविचयं सप्तमं धर्म्यन् । । यथावस्थितमीमांसा संस्थानविचर्य तत् द्वादशविधम् | अनिलम १ अशरणम् २ संसारः ३ एकत्वम् ४ अन्यलम् ५ अचित्वम् ६ आवः ७ संतः ८ निर्जरा ९ लोक १० बोधिदुर्लभः ११ धर्मखाड्यातः १२ इत्यनुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् अष्टमं धर्म्यप्यानम् | ८ | आज्ञावित्रयम् अतीन्द्रियज्ञानविषयं ज्ञातु चतुर्यु ज्ञानेशभावात परलोकचन्धमोक्ष लोकालो कस दत्त द्विवेदनीय धर्माधर्मकालव्यादिपदार्थेषु सर्वज्ञप्रामाण्यात् त्यागमकमिति न सम्यदर्शनस्वभावात् निश्चयचिन्तनं सर्वज्ञागमं प्रमाणीकृत्य अत्यन्तपरीक्षार्थावधारणं वा आशा विचर्य नवमे ध्यानम् ९ हेतुविषयम् आगमविप्रतिपत्तौ नैगमादिनयविशेषगुणप्रधानभावोपनयदुर्धर्षस्याद्वादशक्तिप्रतिक्रियाक्लाम्विगः तर्कानुसारिरुचेः पुरुषस्य स्वसमयगुणपर समय दोष विशेष परिच्छेदेन यत्र गुगप्रकारः तत्राभिनिवेशः पूर्वापार समवस्थानगुणानुचिन्तनं हेतुचिचयं दशमं धर्म्य ध्यानम् १० । सर्वमेतत धर्मध्यानं पीतपद्मशुकुलेश्या वयाधानम् अविरता दिसरागगुणस्थानभूमिकं द्रव्यभावात्मक प्रकृतेिक्षयकारणम् । आ अप्रमत्तान अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावं स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीयं शेष कविंशतिभावलक्षणमोहनीयोपशमयनिमित्तम् । तत्पुनः धर्मध्यानमाभ्यन्तरं बाह्यं च सहजशुद्ध परम चैतन्यशालिने निरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेवबुद्धिं कृला पश्वादनन्तज्ञानोऽहमनन्तसुखोऽहमित्यादिभाषनारूपमाभ्यन्तर सुचित्त, अचित्त, सचिनाचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत, संवृतविवृत ये नौ योनियाँ हैं । इन योनियों में गर्म, उपपाद और सम्मूर्छन जन्मके द्वारा जीव जन्म लेता है। जब यह जीव एक भवसे दूसरे भवमें जाता है तो इसकी गति चार प्रकारकी होती है- इषुगति, पाणिमुक्ता गति, लांगलिका गति और गोमूत्रिका गति । इषुगति बाणकी तरह सीवी होती है, इसमें एक समय लगता है । यह संसारी जीवोंके भी होती है और सिद्ध जीवों भी होती है। शेष तीनों गतियाँ संसारी जीवों ही होती हैं । पाणिमुक्ता गति एक मोडेवाली होती है, इसमें दो समय लगते हैं । अंगलिका गति दो मोडेवाली होती है, इसमें तीन समय लगते हैं । गोमूत्रिका गति तीन मोडेवाली होती है, इसमें चार समय लगते हैं । इस प्रकार अनादिकालसे संसार में भटकते हुए जीवके गुणोंमें कुछभी विशेषता नहीं आती, इसलिये उसका यह भटकना निरर्थक ही है, इत्यादि रूपसे भवभ्रमणके दोषोंका विचार करना भवविचय नामका सातवाँ धर्मध्यान है । अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट आगमको प्रमाण मानकर अत्यन्त परोक्ष पदार्थोंमें आस्था रखना आज्ञाविचय धर्मध्यान है | आगमके विषयमें विवाद होनेपर नैगम आदि नयोंकी गौणता और प्रधानता के प्रयोग में कुशल तथा स्याद्वादकी शक्ति से युक्त तर्कशील मनुष्य अपने आगमके गुणोंको और अन्य आगमोंके दोषोंको जानकर 'जहाँ गुणोंका आधिक्य हो उसीमें मनको लगाना श्रेष्ठ है इस अभिप्रायको दृष्टिमें रखकर जो तीर्थकरके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में युक्तियों के द्वारा पूर्वापर अविरोध देखकर उसकी पुष्टिके लिये युक्तियों का चिन्तन करता है, वह हेतुविचय धर्मध्यान है । इस प्रकार धर्मध्यानके दस भेद हैं । धर्मध्यानके दो भेद भी हैं - एक आन्यन्तर और एक बाह्य । सहज शुद्ध चैतन्यसे सुशोभित और कार्त्तिके० ४७
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy