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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ३६५
नुमोदित भोज्यं ९ इति नवोत्कर्षप्रकारैः विशुद्धं दोषरहितमित्यर्थः । मनसाऽकृतभोजनमित्यादयः नवप्रकाशः ज्ञातव्याः । अत्र पवित्र सत् १ दातार २ पात्रं च ३ पवित्रं करोति । दाता शुद्धः सन् १ अनं २ पात्रे च ३ शुद्धं करोति । पानं शुद्धं सत् १ दातारम् २ अनं च ३ शुद्धं करोति इति नमा नूतना कोटिः प्रकर्षः तया विशुद्धम् । पुनः कीदृक्षम् । याज्यारहितं मध्यम अन्नं देहीति, आहार प्रार्थनार्थं द्वारोद्घाटन शब्दज्ञापनम् इत्यादियाज्ञया प्रार्थनया रहितम् । पुनः कीदृक्षम् । योग्यं मकारत्रयरहितं चर्मजल घृततैलरामठादिभिरसृष्टं रात्रावकृतं चाण्डालनीचलोकमार्जारशुनका दिस्पर्शरहितं यतियोग्य भोज्यम् ॥ ३९० ॥
जो सावयवय-सुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि ।
सो अदहि' सग्गे इंदो सुर-सेविदो' होदि ।। ३९१ ॥
[ छाया-यः श्रावकवतशुद्धः अन्ते आराधनं परं करोति । सः अच्युते खर्गे इन्द्रः सुरसेषितः भवति ॥ ] यः श्रावकत्रतशुद्धः श्राषकस्य श्राद्धस्य व्रतैः सम्यग्दृष्टिदर्शनिका तसामायिकपोषघोपवाससचित्त विरतरा त्रिभुक्तिविर लावावाला श्रावक उद्दिष्ट आहारका त्यागी होता है। आहारकी ही तरह अपने उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका, आसन, चटाई वगैरह को भी यह स्वीकार नहीं करता, न वह निमंत्रण स्वीकार करता है। किन्तु मुनिकी तरह श्रावकों के घर जाकर भिक्षा भोजन करना है। श्राचकोंके घर जाकर भी वह मांगता नहीं कि मुझे भोजन दो, और न आहार के लिये श्रावकों का दरवाजा खटखटाता है। तथा मुनिके योग्य नव कोटिसे शुद्ध आहारको ही ग्रहण करता है। मन बचन कायके साथ कृत, कारित और अनुमोदनको मिलानेसे नौ कोटियां अर्थात् नौ प्रकार होते हैं । अर्थात् उद्दिष्ट व्यागी जो भोजन ग्रहण करे वह उसके मनसे कृत न हो, मनसे कारित न हो, मनसे अनुमत न हो, वचनसे कृत न हो, वचनसे कारित न हो, वचन से अनुमोदित न हो, कायसे कृत न हो, कायसे कारित न हो, कायसे अनुमोदित न हो। इन्ह उत्कृष्ट नौ प्रकारोंसे युक्त विशुद्ध भोजनको ही उद्दिष्ट विरत श्रात्रक ग्रहण करता है || ३९० ॥ अर्थजो श्रावक व्रतोंसे शुद्ध होकर अन्तमें उत्कृष्ट आराधनाको करता है वह अच्युत स्वर्ग में देवोंसे सेवित इन्द्र होता है । भावार्थ- जो श्रावक सम्यग्दृष्टि, दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त विरत, रात्रिभुक्ति विरत, अब्रह्म विरत, आरम्भ विरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत, और उद्दिष्ट विरत इन बारह व्रतोंसे निर्मल होकर मरणकाल उपस्थित होनेपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और
इन चार आराधनाओं को करता है वह मरकर अच्युत नामके सोलहवें स्वर्ग में जाता है, उससे आगे वग्रैवेयक वगैरह में नहीं जाता, ऐसा नियम है। तथा वहाँ देवोंसे सेवित इन्द्र होता है । श्रीवसुनन्दि सैद्धान्तिक उद्दिष्टाहार विरत प्रतिमाका लक्षण इस प्रकार कहा है- "श्यारहवीं प्रतिमाका धारी उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है । एक तो एक वस्त्र रखनेवाला और दूसरा लंगोटी मात्र रखनेवाला || प्रथम उत्कृष्ट श्रावक अपने बाल उत्तरेसे बनवाता है अथवा कैचीसे कतरवाता है। और सावधानी पूर्वक कोमल उपकरणसे स्थान आदिको साफ करके बैठता है । बैठकर स्वयं अपने हाथरूपी पत्र में अथवा बरतन में भोजन करता है । और चारों पत्रोंमें नियमसे उपवास करता है। उसके भोजन की विधि इस प्रकार है- पात्रको धोकर वह चर्या के लिये श्रावकके घर जाता है और आंगन में खड़ा होकर 'धर्मलाभ' कहकर स्वयं भिक्षा मांगता है || तथा भोजन के मिलने और न मिलनेमें सम
१ अन्मि । २ म सग सेविमो (१) १. छाति विरहो एवं सावयधम्मो समायन्तोः ॥ जो रगणन्त्रय इत्यादि ।