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________________ - १९० ] १२. धर्मामुप्रेक्षा [ः पुनः चिन्तयति कार्य शुभाशुभं रागदोषसंयुक्तः उपयोगेन विहीनं स करोति पापं विना कार्यम् ] स प्रसिद्धः करोति विद्याति । किं तत् । कार्य मिना पार्य साध्ममन्तरेण फलं बिना दुरितं करोति । स कः । यः पुनः चिन्तयति ध्यायति । किं तत् शुभाशुभकार्य पुत्रजन्माशन चूहा करणाध्यापनविवाहादिकं शुभं कर्म परपीडनमारणबन्धादिकं क्षितिजननादि शुभकार्य चिन्तयति । कीदृशं तम उपयोगेन साध्यसाधकत्वेन विहीन रहित निरर्थकमित्यर्थः । कीदृक्षः सन् । रागद्वेषसंयुक्तः शुभेषु कार्येषु रागः प्रीतिः अशुमेषु कार्येषु द्वेषः अभीतिः ताभ्यां संयुक्तः रागद्वेषमय इत्यर्थः । एवंभूतस्य पुंसः अनुमननविनिवृतिः कथं भवतीति । तथा वसुनन्दिना चोक्तं य। 'पुट्टो वायुको अणिययपरे च समि अणुमणणं जो ग कुणदि विवान सो सावओो दहनो ॥' तथा । 'अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वेद्दिकेषु कर्मसु वा । नास्ति ख यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥ इति । इत्यनुमतविरतिप्रतिमा, एकादशो धर्मः ११ ॥ ३८९ ॥ अथ गाथायेोविविरतिप्रति जो व कोडि विद्धं भिक्वायरणेण भुंजदे भोजें । जायण - रहियं जग्गं उद्दिट्ठाहार - विरदो सो ॥ ३९० ॥ [ छाया-यः नवकोटिविशुद्धं मिक्षाचरणेन भुझे भोज्यम् । याचनरहितं भोग्यम् उद्दिष्ठाद्वारविरतः सः [0] भावकः उद्दिष्टाहारविरतः उद्दिष्टः पात्रं वहिश्य निर्मापितः उद्दिष्टः स चासो आहारथ उद्दिष्टाहारः तस्मात् वरिष्टाद्वारात् विरतः निवृत्तः उद्दिष्टाहार विरतः स्वोदिष्टपिण्डोपविशयनवरासन वसत्यादेर्विरतः भवेत् । स कः । यः भुंके याति भक्षयति किं तत् । भोज्यं भोजनमाहारम् अशनपानखाथस्वाद्यादिकं चतुर्विधम् । केन मिक्षाचरणेन आहारार्थ परगृहगममेन परिभ्रमणेन । कीदृक्षं तत् भोज्यम् । नवकोटिविशुद्ध मनोवचनकायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः नवकोटिभिः नवोप्रकारः विशुर्ददोषरहित निर्मलं भोज्य निर्दोषम् । मनः कृतं भोग्यं १, मनः कारितं भोज्यं २, मनोनुम भोज्यं ३, मोज्यं ४, मनकारितं भयं ५, रचनानुमोदित भोज्यं ६ कायकृत भोज्यं ७, कायकारित भोज्यं ८, काना । संयुक्त होकर शुभ और अशुभ कार्योंका चिन्तन करता है वह व्यर्थ पापका उपार्जन करता है ॥ भावार्थ - मनुष्यों में प्रायः यह आदत होती है कि ये जिनसे उनका राग होता है उनका तो वे भला विचारा करते हैं और जिनसे उनका द्वेष होता है उनका बुरा चाहते हैं । किन्तु किसीके चाहने मात्रले किसीका मला पुरा नहीं होता । अतः ऐसे आदमी व्यर्थमें ही पापका संचय किया करते हैं। किन्तु अनुमोदना विरल श्रावक तो आरम्भ और परिहको छोड़ चुका है । घरसे भी उसका बास्ता नहीं रहा । ऐसी स्थितिमें भी यदि वह राग और द्वेषके वशीभूत होकर पुत्रजन्म विवाह आदि शुभ कागोंकी और दूसरोंको पीडा देना मारना पीटना आदि अशुभ कार्योंकी अनुमोदना करता है तो वह यही पाप बन्ध करता है। ऐसे श्रावकके अनुमतित्याग प्रतिमा नहीं हो सकती | वसुनन्दिने भी कहा है- "अपने या दूसरे लोगोंके द्वारा घरेलु कार्मोके बारेमें पूछनेपर या बिना पूछे जो सलाह नहीं देता वह दसवीं प्रतिभाका धारी श्रावक है ।"] रत्नकरंड श्रावकाचार में भी कहा है- "खेती आदि आरम्भकें • विषयमें, धन धान्य आदि परिप्रहके विषय में और इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कार्योंमें जो अपनी अनुमति नहीं देता वह समबुद्धि श्रावक अनुमतिविरत है ।" इस प्रकार अनुमतिविरत श्रावकका कथन समाप्त हुआ || ३८९ | आगे दो गाथाओंसे उद्दिष्ट विरति प्रतिमाका स्वरूप कहते हैं। अर्थजो श्रावक भिक्षाचरण के द्वारा बिना याचना किये, नव कोटिसे शुद्ध योग्य आहारको ग्रहण करता है वह उद्दिष्ट आहारका लागी है । भावार्थ-अपने उद्देश्यसे बनाये हुए भाहारको महण न करने १ छ नम २ बस विशुद्धं । ६ म भोगी । ४ छ म सग चिरओ (१) ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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