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________________ २८४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३८८वासुधनधान्यादिधायपरिग्रहरहिताः । पुनः अनूचः कोऽपि कश्चित्पुमान् न शमोति न समों भवति । किं कर्दम् । छाडयितुं त्या मोक्तुं। कं तम् । अभ्यन्तर ग्रन्थं मिथ्यावादिपरिग्रहम् , इन्द्रियामिलापलक्षणं परिग्रह वा मनोऽभिलाषरूपं स्यक्तुं का समर्थः, अपि तु न । इति परिग्रहविरतिप्रतिमा, श्रावकस्य दशमो धर्मः १० ॥३८७ ॥ अयानुमोदनविरति गाथायेन विकृष्णोति जो अणुमणणं ण कुणदि निहत्थ-कज्जेसु पाव-मूलेसु'। भवियव्वं भावतो अणुमण-विरओ हवे सो दु॥ ३८८॥ . [छाया-यः अनुमननं न करोति गृहस्थकार्येषु पापमूलेषु । भवितव्यं भावयन् अनुमननिरतः भवेत् स तु ॥] स सुधावकः अनुमननविरतः अनुमोदमारहितः अनुमतरहितः धाद्धो भवेत् । स कः । यः गृहस्थकार्येषु गृहस्थानों पुत्रपौत्रादिपरिवाराणा कार्याणि विवाधनोपार्जनगृहनिर्मापणप्रमुखानि तेषु गृहस्थकार्येषु अनुमननम् , अनुमोदनां मनसा वचसा श्रद्धानं चिरूपा न करोति न विदधाति । कथंभूतेषु गृहस्थकार्येषु । पापमूलेषु पापकारणेषु पापानाम् अशुभकर्मणा मुलेषु कारणभूतेषु 1 कीहक् सः । भवितव्य किंचित् भवितव्यं तत् भविष्यत्येव इति भावयन् चिन्तयन् । स श्रावकः माराकानाम्भारम्भावामनुभननाद्विनिता भवति ॥ २८८ ॥ जो पुणे चिंतदि कर्ज सुहासुहं राय-दोस-संजुत्तो। उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कजं ॥ ३८९ ॥ लिये परिग्रह कहा है कि वह ममत्य परिणामका कारण है । उनके होतेही मनुष्य उन्हें अपना मानकर उनकी रक्षा वगैरहकी चिन्ता करता है । किन्तु यदि भाग्यवश बाह्य परिग्रह नष्ट होजाये या मनुष्य जन्मसे ही दरिद्री हो तो भी उसके मनमें परिग्रहकी भावना तो बनी ही रहती है तथा बाह्य परिग्रहके न होने या नष्ट होजाने पर भी काम,क्रोध, आदि अन्तरंग परिग्रह बना ही रहती है । इसीसे आचार्य कहते हैं कि बाह्य परिप्रहके छोडनेमें तारीफ नहीं है, किन्तु अन्तरंग परिग्रहके छोडनेमें तारीफ है | सदा अपरिग्रही वही है जिसके अन्तरंग परिग्रहकी भावना नहीं है । इस प्रकार परिग्रहयाग प्रतिमाका कथन सम्पूर्ण हुआ ॥ ३८७ ॥ आगे, दो गाथाओंसे अनुमोदनाविरतिको कहते हैं । अर्थ-'जो होना है वह होगा ही ऐसा विचार कर जो श्राक्क पापके मूल गाईस्थिक कार्योंकी अनुमोदना नहीं करता वह अनुमोदनाविरति प्रतिमाका धारी है । भावार्थ-परिग्रहत्याग प्रतिमाका धारी श्रावक आरम्भ और परिग्रहको छोडने पर भी अपने पुत्र पौत्रोंके विवाह आदि कार्योकी, वणिज व्यापारकी, मकान आदि बनवाने की मन और वचनसे अनुमोदना करता था, क्यों कि अभी उसका मोह अपने घरसे हटा नहीं था तथा यह घरमें ही रहता था । किन्तु अनुमोदना विरत श्रावक यह सोचकर कि 'जिसका जो कुछ भला बुरा होता है वह होओ' अपने घरकी ओरसे उदासीन होजाता है। उसके पुत्र वगैरह कोई भी गार्ह स्थिक काम करें उससे उसे कोई प्रयोजन नहीं रहता । अब वह घरमें रहता है तो उदासीन बनकर रहता है, नहीं तो घर छोडकर फेस्यालय वगैरहमें रहने लगता है । भोजनके लिये अपने घरका मा पराये घरका जो कोई बुलाकर लेजाता है उसके घर भोजन कर लेता है । तथा ऐसा मी नहीं कहता कि हमारे लिये भोजनमें अमुक वस्तु बनवाना । जो कुछ गृहस्थ जिमाता है, जीम आता है। हौं, भोजन शुद्ध होना चाहिये ।। ३८८ ।। अर्थ-जो बिना प्रयोजन राग द्वेषसे १म पापसेन । २१४। मग उगेण। ४६मणुमयाबरओ । जो नव इस्मादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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