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१२. धर्मातुप्रेक्षा
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भाद्यर्थे पञ्चम्याः इति पञ्चमीतत्पुरुषः । स कः । यः अभ्यन्तरं मन्यम्, मिथ्यात्व वेददास्यादिषट्कषायचतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्च गुर्दश ॥ इति चतुर्दश प्रकार परित्र परिवर्जयति । च पुनः बाह्य प्रम्यम्, क्षेत्र वास्तु घनं भा द्विपदं च चतुःपदम् । यानशय्यासनं कुर्य भांडं चेति बहिर्दश ॥ इति दशमेदभिन्नपरिग्रहं परिवर्जयति त्यजति २०१ ग्रन्यं प्रनासि अनुबध्नाति संभारमिति ग्रन्थः परिषदः तं परिवर्जयति व्यजति । यः श्रावकः । कीदृक्षः सानन्दः आनन्देन शुद्धचित्र पोत्यानानन्देन सुखेन वर्तमानः सानन्दः । पुनः कीदृक् । परिग्रह पापमिति दुरितमिति मन्यमानः कामन् । सब यो च मोसूण वत्थमे परिगाहं जो वित्रजए सेसं । तत्थ बि मुच्छे ण करेदि जाण सो सावओो जनमो ॥ तथा चाषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः प्रन्य विद्दीना देखिमनुजाः स्वपापतः सन्ति । पुनरभ्यन्तरसंगत्यागी लोकेऽतिदुर्लभो जीवः ॥27 क्रोधादिकषायागामारौद्रयोः हिंसादिपञ्चपापानां भवस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सारितधर्मशुद्धः परिप्र६ इति मत्वा दशविधवापरिग्रहाद्विनिवृत्तः स्वस्थः संतोषपरो भवतीति ॥ ३८६ ॥
बाहिर-गंध-विहीणा दलिह मथुत्री सहावदो होति' ।
अब्भंतर-गंधं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ३८७ ॥
[छाया-बाह्यमन्यविहीनाः दरिद्रमनुजाः स्वभावतः भवन्ति । अभ्यन्तरप्रन्थं पुनः न शक्नोति कः अपि त्यक्तुम् ॥ ] स्वभावतः निसर्गतः पापाद्वा दरिद्रमनुष्याः निर्व्रव्यपुरुषाः दरिक्षिणः नरा भवन्ति । कथंभूताः । बाह्यप्रन्थविहीनाः क्षेत्र
देता है उसे निर्ग्रन्थ ( परिग्रहत्यागी ) कहते हैं । भावार्थ- जो संसारसे बाँधता है उसे अन्य अथवा ॥ परिग्रह कहते हैं । परिग्रहके दो भेद हैं-अन्तरंग और बाह्य । मिध्यात्व एक, वेद एक, हास्य आदि छै: मोकषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष ये चौदह प्रकारका तो अन्तरंग परिग्रह है, और खेत, मकान, धन, धान्य, सोना, चांदी, दासी, दास, भाण्ड, सवारी ये दस प्रकारका बाह्य परिग्रह है। जो इन दोनोंही प्रकार के परिग्रहको पापका मूल मानकर व्याग देता है तथा व्याग करके मनमें सुखी होता है वही निर्ब्रन्थ अथवा परिग्रहका लागी है। बसुनन्दि श्रावकाचार में भी कहा है- 'जो चख मात्र परिग्रहको रखकर बाकी परिग्रहका व्याग कर देता है और उस वन मात्र परिग्रहमें भी ममत्व नहीं रखता वह नवमी प्रतिमाका धारी श्रावक है।' रत्नाकरंड श्रावकाचार में कहा है- "बाह्य दस प्रकारकी वस्तुओंमें ममत्व छोडकर जो निर्ममत्वसे प्रेम करता है वह स्वस्थ सन्तोषी श्रावक परिग्रहका त्यागी है ||" आशय यह है कि आरम्भका त्याग कर देनेके पश्चात् श्रावक परिग्रहका त्याग करता है। वह अपने पुत्र या अन्य उत्तराधिकारीको बुलाकर उससे कहता है कि 'पुत्र, आज तक हमने इस गृहस्थाश्रमका पाचन किया । अब हम इससे विरक्त होकर इसे छोडना चाहते हैं अतः अब तुम इस भारको सम्हालो और यह धन, धर्मस्थान और कुटुम्बीजनोंको अपना कर हमें इस भारसे मुक्त करो।' इस तरह पुत्रको सब भार सौंपकर वह गृहस्थ बडा हल्कापन अनुभव करता है और मनमें सुख और सन्तोष मानता है। क्यों कि यह जानता है कि यह परिग्रह हिंसा आदि पापोंका मूल है, क्रोध अदि कायोंका घर है और दुर्ष्यानका कारण है। अतः इसके रहते हुए धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं हो सकते || ३८६ ॥ अर्थबाबा परिप्रहसे रहित दरिद्री मनुष्य तो स्वभावसे ही होते हैं । किन्तु अन्तरंग परिग्रहको छोडने में कोई भी समर्थ नहीं होता || भावार्थ - वास्तव में परिग्रह तो ममत्व परिणाम ही है। धन धान्य वगैरहको तो इस
१ क मा दलिहणुआ ( स मणुवा)। २ ब ति २ को वि ४ व निर्ममः । जो अशु हत्यादि ।