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________________ ?zwadc २८१ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [ ना० २८५ 'मुलगी मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि यीभत्सम् । पश्यन्नहमननाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ यो न च याति विका युवतिनकटाक्षवाणविद्धोऽपि । स त्वेव शूरशूरो रणशूरो नो भवेच्छूरः ॥ इति ब्रह्मचर्यप्रतिमा, अष्टमी धर्मः ॥ ३८४ ॥ अधारम्भविरतिप्रतिमां वकुमारभते जो आरंभं ण कुणदि अण्णं कारयदि व अणुमण्णे' । हिंसा - संत-मणो चत्तारंभो हवे सो हुं ॥ ३८५ ।। ' [ छाया यः आरम्भ न करोति अन्यं सम्यति नैव अनुमन्यते । हिंसासंत्रस्तमनाः यतारम्भः भवेत् स खलु ॥] हि निश्चितं स त्यारम्भः असिमपिकृषिवाणिज्याद्यारम्भनिवृत्तिप्रतिमा परिणतः श्रावको भवेत् । स कः । यः आरम्भम् असिमधिकृषिवाणिज्यादिगृहव्यापार प्रारम्भं स्वयम् आत्मना न करोति न विदधाति च पुनः अन्य परपुरुषं प्रेर्यभारम्भ नैव कारयति आरम्भं कुर्वन्तं नरं नानुमोदयति । परपुरुषम् आरम्भं पापकर्म सावच्या दिकं कुर्वन्तं दृष्ट्वा अनुमोदनामनाः हर्षादिकं न प्राप्नोतीत्यर्थः । कीदृक्षः सन् । हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः संत्रस्तं श्रासे भयं प्राप्तं मनो यस्य स हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः प्रागाविपातात् भयभीतचितः । तथा चोक्तं च । सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योसावारम्भषिनिवृतः । इत्यारम्भविरतिप्रतिमा, नवमः श्रावकधर्मः ९ ॥ ३८५ ॥ अथ परिप्रहविरति प्रतिमां गाथादयेन विहगोति 25 ह जो परिवाई गंध अभंतर बाहिरं व साणंदो । पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥ ३८६ ॥ [ छाया-यः परिवर्जयति प्रन्थम् अभ्यन्तरबाह्य व सानन्दः । पापम् इति मन्यमानः निर्ग्रन्थः स भवेत् ज्ञानी ॥ ] शानी मेदशाभी विवेकसंपनः निर्मन्थः अन्येभ्यः ह्याभ्यन्तरपरिग्रहेभ्यः निःकान्तो निर्गतः निर्मन्यः । निरादयो निर्ग बहता रहता है, दुर्गन्धयुक्त है, देखनेमें बीभत्स है। ऐसे अंगको देखकर जो कामसे विरक्त होता है यह ब्रझचारी है ।” और भी कहा है--'जो युवतियोंके कटाक्षरूपी बाणोंसे घायल होनेपरमी विकारको, प्राप्त नहीं होता वहीं पुरुष शूरवीरोंमें शूरवीर है। जो रणके मैदान में शूर है वह सम्धा शूर नहीं है ]] इस प्रकार आठवी मह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप कहा ॥ ३८४ ॥ आगे आरम्भ स्याग प्रतिमाको कहते 1 है । अर्थ- जो श्रावक आरम्भ नहीं करता, न दूसरेसे कराता है और जो आरम्भ करता है उसकी अनुमोदना नहीं करता, हिंसासे भयमीत मनवाले उस श्रावकको आरम्भ स्यागी कहते हैं । भावार्थहिंसा भयसे जो श्रावक तलवार चलाना, मुनीमी करना, खेती, व्यापार करना इत्यादि आरम्भोको न तो स्वयं करता है, न दूसरे पुरुषोंको आरम्भ करने की प्रेरणा करता है और न आरम्भ करते हुए मनुष्यको देखकर मनमें हर्षित होता है वह आरम्भत्यागी है। कहा भी है-“जो हिंसाका कारण होनेसे खेती, नौकरी व्यापार आदि आरम्भसे विरक्त हो जाता है वह आरम्भस्यागी है ।" इससे यह प्रकट होता है कि आरम्भत्यागी श्रावक जीविका उपार्जनके लिये कोई आरम्भ नहीं करता । किन्तु गृह सम्बन्धी आरम्भका याग उसके नहीं होता । अतः वह स्वयं भोजन बनाकर खा सकता है। इस प्रकार आरम्भत्याग प्रतिमाका स्वरूप कहा ॥ २८५ ॥ आगे दो गाथाओंसे परिग्रहत्याग प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष पाप मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको आनन्दपूर्वक छोड २ अणुमणे (मणो १) म अणुमण्णो, ख स अणुमध्णे ( ग 'मणो ) । २कम सग हि । १ ब रंभा ॥ जो परिवज्जर इत्यादि । ४ म प स परिवदि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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