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________________ - ] १२. धर्मानुभेक्षा २८१ कोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पना लिसंघटपीडिताः 'घाए घाइ असंखे बा' इति । स कः । यः शानवान् अमिलापं वाष्ठा न कुरुते न विदधाति । कासाम् ।.सर्यासो खीणां, देवी मानुषी तिरश्वी काठपाषाणादिघटिताऽचेतना ली इति चतुर्विधानां युवतीनाम्, अमिला न कुछते । केन । मनसा चिन वाचा बचनेन कायेन शरीरेण, च शब्दात् कृतकारितानुमोदनेन च। मनःकृतकारितानुमोदनेन वीणा वाञ्छां न करोति न कारयति नानुमोदयति ३, [वाचा कृतकारतानुमोदनेन स्त्रीणां बाछा न करोति न कारयति नानुमोदयति ३, कायकृतकारितानुमोदनेन स्त्रीणां वाञ्छा न करोति न कारयति नानुमोदयति३ । तथाष्टादशशीलसहनप्रकारेण शीलवत पालयति । अट्ठारससीलसहस्सेस जोगे ३ करणे ३ सम्णा YMS..* --- इंदिय ५ णिहा १० य सवणधम्मो य अण्णोण हय अट्ठारसनीलसहस्सा य ॥ देवी मानुषी तिरष्दी अचेतना चततः स्त्रीजातयः ४, मनोवयनकायैस्ताडिताः भेदाः १२, ते कृतकारितानुमतबिमिः करणः ३ गुणिताः मेदाः ३६, ते पछेन्द्रियैईताः मेदाः १८०, ते दासंस्कारगुणिताः १८.. । तथाहि, गारीरसंस्कार. १, झाररसरागसेना २, हास्यकोडा ३, संसर्गवाञ्छा , विषयसंकल्पः५, शरीरनिरीक्षण, शरीरमण्डन ७, दान ८, पूर्वस्तस्मरणं, मनश्चिन्ता १०.ते दशसंस्कारैर्गुणिताः १८..ते दशकामचेष्टाभिगुणिताः मेदाः १८००० । तथाहि, चिन्ता १, दर्शनेच्छा २षोंग्यासः ३ शरीरे धातिः ४, शरीरदाहः ५, मन्दामिः ६, मूरली ७, मझेन्मलः ८, प्राणसंदेवः ९, शुकमोचनम् १०, इति । तमा .- ---. .. वगैरहसे बनाई गई अचेतन खी आकृति । जो इन सभी प्रकारकी सियोंको मन वचन कापसे और कृत, कारित, अनुमोदनासे नहीं चाहता, अर्थात् वयं अपने मनमें खीकी अभिलाषा नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेके लिये कहता है और न जो किसी स्त्रीको चाहता है उसकी मनसे सरम्झना करता है। न स्वयं खियोंके विषयमें रागपूर्वक बात चीत करता है, न वैसा करने के लिये किसीको कहता है और न जो वैसा करता है उसकी सराहना वचनसे करता है। स्वयं शरीरसे स्त्रीविषयक बांछ नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेका संकेत करता है और न जो ऐसा करता हो उसकी कायसे अनुमोदना करता है । वह ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य अथवा शीतके अठारह हजार भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार है-देवी, मानुषी, तिरश्ची और अचेतन ये स्त्रियोंकी चार जातियां हैं । इनको मन वचन और कायसे गुणा करने पर १२ भेद होते हैं । इन बारइको कृत, कारित और अनुमोदनासे गुणा करने पर ३६ भेद होते हैं । इनको पाँचों इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८० मेद होते हैं । इनको दस संस्कारोंसे गुणा करने पर १८०० अट्ठारहसौ भेद होते हैं। दस संस्कार इस प्रकार हैं-शरीरका संस्कार करना, शृङ्गाररसका रागसहित सेवन करना, हंसी क्रीडा करना, संसर्गकी चाह करना, विषयका संकल्प करना, शरीरकी ओर ताकना, शरीरको सजाना, देना, पहले किये हुए सभोगका स्मरण करना और मनमें भोगकी चिन्ता करना । इन १८०० भेदोंको कामकी दस चेष्टाओंसे गुणा करने पर १८००० अट्ठारह हजार भेद होते हैं । कामकी दस चेष्टायें इस प्रकार है-चिन्ता, दर्शनकी इच्छा, आहे भरना, शरीरमें पीडा, शरीरमें जलन, खाना पीना छोड देना, मूर्छित हो जाना, उन्मत्त होजाना, जीवन में सन्देह और वीर्यपात । इन अट्ठारह हजार दोषोंको टालनेसे शीलके अट्ठारह हजार भेद होते हैं। पूर्ण ब्रह्मचारी इन भेदोंका पालन करता है । जो प्रमचर्य पालता है वह बड़ाही दयाल होता है; क्यों कि सियोंके गुप्तांगमें, स्तन देशमें, नाभिमें और काखमें सूक्ष्म जीव रहते हैं। अतः जब पुरुष मैथुन करता है तो उससे उन जीवोंका घात होता है । आचार्य समन्तभद्ने ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकार कहा है-"स्त्रीके गुप्त अंगका मूल मल है, यह मलको उत्पन्न करनेवाला है, उससे सदा मल कार्तिक ३५
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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