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________________ स्वामिमारिकयातुमेक्षा [गा- ३८४[छाया-यः निधिभुक्ति वर्मयति स उपवास करोति षण्मासम् । संवत्सरस्य मध्ये भारम्भ त्यजति रजन्याम् ॥1 भः पुमान् निशि भुमि चतुर्धा रात्रिभोजन वर्जयति नियमेन निषेधयति स पुमान संवत्सरस्य मध्ये घर्षस्य मध्ये षण्मासमुपचास करोति, सस्य षण्मासकृतोएवासफल भवतीत्यर्थः । च पुनः, रजन्या रात्री स रात्रिभोजमविर कः पुमान् भारम्भ गृहव्यापार ऋयविक्रयवाणिज्यादिक खण्डनीपीसनीहीउदकुम्भप्रमाजनीपञ्चसमादिकं त्यजति स रात्रिभोजनविरतः रात्रौ सावधपापच्यापाराविक स्यजति । तथा चोक्त च। अनं पानं खाद्य लेख नानाति यो विभााम् । स ब रात्रिभुकिविरतः सरवन्धनुकम्पमानमनाः ॥,यो निशि भुक्ति मुञ्चति तेनानानं तं च षण्मासम् । संवत्सरस्म मध्ये निर्दिष्टं मुनिवरेपोति । तथा च बारित्रसारे 'रात्रिभवतः रात्री स्त्रीणी भजनं रात्रिभर तत् प्रतयति सेवते इति रात्रिभधानतः दिवा ब्रह्मवारीत्यर्थः । तथा वमुनन्दिना दोस । 'मणवयणकायकदकारिदाणुमोदेहि मेहुणे णबंधा । दिवसम्मि जो विवजइ गुणम्मि सो सावओ टटो ॥ इति रात्रिभुक्तियतप्रतिमा, सप्तमो धर्मः ॥३८३॥ अथ ब्रह्मचर्यप्रतिमा बंभणीति सव्वेर्सि इत्थीणं जो अहिलासंण कुन्वदे णाणी । मण-याया-कायेण य बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ ॥ जी कय-कारिय-मोयण-मण-यय-काएण मेहुणं चयदि । बंभ-पवजारूढो बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ *१॥ [छाया-सर्वासा स्त्रीगा यः अमिलाएं न कुरुते ज्ञानी । मनोवाकायेन च वावती स भवेत् सदयः ॥ य: सकारितमोदनमनोचाकायेन मैथुनं खजति । ब्रह्मप्रवज्यारूढः ब्रह्मावती स भवेत् सदयः ॥] स श्रावकः ब्रह्मचर्यप्रतधारी भवेत् । कोहक्षः सदयः । स्त्रीशरीरोत्थजीवदयापरिणतः । उर्फ च ।(लिंगम्मि य इत्थीणं थर्णतरे माहिकक्वदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ सासिं कह होइ पवजा " श्लोकः । 'मैथुनाचरणे मूडा नियन्ते जन्तु है। और रात्रिमै आरम्भका त्याग करता है ।। भावार्थ-जो श्रावक रातमें चारोंही प्रकारके भोजनको ग्रहण नहीं करता वह प्रतिदिन रातभर उपवासी रहता है, क्यों कि चारों प्रकारके आहारको सागनेका नाम उपवास है । अत: वह एक वर्षमें छ: महीना भोजन करता है और छ: महीना उपवासी रहता है, इससे उसे प्रतिवर्ष छ महीनेके उपवासका फल अनायास मिल जाता है । तथा रातमें कूटना, पीसना, पानी भरना, माह लगाना, चूल्हा जलाना आदि आरम्भ करनेसेभी वह बच जाता है । कहाभी है'जो रात्रिमें अन्न (अनाज) पान (पीने योग्य जल वगैरह ) खाद्य ( ला वगैरह ), लेछ ( रबडी वगैरह ) को नहीं खाता वह प्राणियोंपर दया करनेवाला श्रावक रात्रिभोजनका स्वागी है । और भी कहा है-'जो रात्रिमें भोजनका स्याग करता है यह वर्षमें छ: महीना उपवास करता है ऐसा मुनिबरने कहा है। चारित्रसार नामक ग्रन्थमें रात्रि ही स्त्री सेवन करनेका व्रत लेनेवालेको रात्रिभुक्तवत कहा है, अर्थात् जो दिनमें मैथुनका त्याग करता है उसके यह प्रतिमा होती है । आचार्य वसुनन्दिका भी यही कहना है यथा-'जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारोंसे दिनमें मैथुनका त्याग कर देता है वह छठी प्रतिमाका धारी श्रावक है ।" इस प्रकार रात्रिमुत्रवतका कथन हुआ ॥ ३८३ ॥ अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाको कहते हैं। अर्थ-जो ज्ञानी मन, वचन और कायसे सब स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता बह दयाल ब्रह्मचर्यव्रतका धारी है | भावार्थ-स्त्रियाँ चार प्रकारको होती है-एक तो देवांगना, एक मानुषी, एक गाय, कुतिया वगैरह तिर्यश्चनी और एक लकडी पत्थर 14गणवयण कायेण (१)। २ या गाथा व म पुस्तकयोरेन। म पुस्तके 'मोयण ति पदं नास्ति। ४सो होति मूलपाठ ५संभवई । जो इत्यादि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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