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१२. धर्मानुप्रेक्षा जो वजेदि सचित्त दुजय-जीहा विणिज्जियों तेण।
दय-भावो होदि किओ' जिण-वयणं पालियं तेण ॥ ३८१॥' [छामा-यः वर्जयति सचित्त दुईयजिला विनिजिता तेन । दयाभावः भवति फुतः जिनवयनं पालित चेन ॥ तेन पुंसा दुर्जयजिहापि दुःखेन जीयते इति दुर्जया सा चासो जिला त्रादुर्जयजिवा दुःखेन जेतुमशक्या रसना, अपिशन्दात् शेषेन्द्रियाणि, निर्जिता जयं नीता वरी नीता इत्यर्थः । तेन दयाभावः कृपापरिगामः कृतः निष्पादितो भवति । तथा तेन पंसा जिनवचनं पालितं सर्वज्ञवाक्यं पालितं रक्षितं भवति। तेन केन । यः सचित्त जलकलदलकन्दवीजादिकं बर्जयति निषेधयति । इत्यनुप्रेक्षा सचित्तविरतिप्रतिमा, षष्ठो धमा व्याख्यातः ६ ॥३८१।। अथ रात्रिभोजनविरतिप्रतिमा गायादवेन
जो चउ-विहं पि भोज रयणीएँ व भुंजदे णाणी ।
ण य भंजाबदि अण्णं णिसि-विरओ सो हवे भोजो ॥ ३८२ ॥ छाया-यः चतुर्विधम् अपि भोज्य रजन्यां नैत्र भुझे ज्ञानी । न च भोजयति अन्य निधि विरतः स भवेत् भोज्यः।।] स भोज्यः भकः श्राद्धः भवेत् आयते । अथया निशि रात्रौ भोज्यात् भुक्तः आहारात् विरतः निवृत्तः रात्रिभुक्तिविरत इत्यर्थः । स कः । यः ज्ञानी सन् ज्ञानवान बुद्धिमान रजन्यो निशायां चतुर्विधमपि भोज्यम् अशनपानखायखाद्यादिक भोजनम् आहारं नैव भुते नैवाति, च पुनः, अन्यं परपुरुष न भोजयति भोजनं नैव कारयति ॥ ३४३ ।।
जो णिसि-भुत्ति जदि सो उववासं करेदि छम्मा ।
संवच्छरस्स मज्झे आरंभं चयदि रयणीए ॥ ३८३॥ अर्थ-जिस श्रावकने सचित्तका त्याग किया उसने दुर्जय जिवाको भी जीत लिया, तथा दयाभाव प्रकट किया और जिनेश्वरके वचनोंका पालन किया ।। भावार्थ-जिक्षा इन्द्रियका जीतना बड़ा कठिन है। जो लोग विषयसुखसे विरक्त होजाते हैं उन्हें भी जिहाका लम्पटी पाया जाता है | किन्तु सचित्तका त्यागी जिल्ला इन्द्रियको भी जीत लेता है । वैसे सचित्तके त्यागनेसे सभी इन्द्रियों वशमें होती है, क्यों कि सचित्त वस्तुका भक्षण मादक और पुटिकारक होता है । इसीसे यधपि सचित्तको अचित्त करके खानेमें प्राणिसंयम नहीं पलता किन्तु इन्द्रिय संयमको पालनेकी दृष्टिसे सचित्त त्याग आवश्यक है। सुखाने, पकाने, खटाई, नमक वगैरहके मिलाने तथा चाकू वगैरहसे काट देनेपर सचिस वस्तु अचित्त हो जाती है । ऐसी वस्तुके खानेसे पहला लाभ तो यह है कि इन्द्रियों काबू होती है। दूसरे इससे दयाभाव प्रकट होता है, तीसरे भगवानकी आज्ञाका पालन होता है, क्योंकि हरितकाय वनस्पलिमें भगवानने जीवका अस्तिता बतलाया है | यहाँ इतना विशेष जानना कि भोगोपभोग परिमाण ब्रतमें सचित्त भोजमको अतिचार मान कर छुडाया गया है, और यहाँ उसका व्रत रूपसे निरतिचार त्याग होता है ।। इस प्रकार छठी सचित त्याग प्रतिभाका वर्णन समाप्त हुआ || ३८१ ॥ अब रात्रिभोजन साग प्रतिमाको दो गाथाओंसे कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी श्रावक रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनको नहीं करता और न दूसरेको रात्रिमें भोजन कराता है वह रात्रि भोजनका स्वागी होता है। भावार्थरात्रि में खाद्य, खाद्य, लेख और पेय चारोही प्रकारके भोजनको न स्वयं खाना और न दूसरेको खिलाना रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है । वैसे रात्रि भोजनका त्याग तो पहली और दूसरी प्रतिमामें ही हो जासा है क्योंकि रातमें भोजन करनेसे मांस खानेका दोष लगता है, रातमें जीवजन्तुओंका बाहुल्य रहता है और तेजसे तेज रोशनी होने परभी उनमें धोखा होजाता है। अतः सजीवोंका घातभी होता है। परन्तु यहाँ कुत और कारित रूपसे चारोही प्रकारके भोजनका त्याग निरतिचार रूपसे होता है ।। ३८२ ॥ अर्थ-जो पुरुष रात्रिभोजनको छोड देता है वह एक वर्षमें छ: महीना उपवास करता
१स विणिज्जिदा। पदयभाषोनिय अजिब(1)। सचित्त विरवी। जो चनपित्यादि। मस रवलीये 14 जादि । लमसा मुंजापन (
म
भु जो। कमसग मुयादि । १.रायभनी सम्पर्सि श्लादि।