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________________ E -४८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा सभ् दूरीकृतविधातुपाषाणसं जातसार्धषोडशदणि कासुवर्णरूपसदृशः परिप्राप्तात्मस्वरूपः एकसमयेन परमनिर्वाणं गच्छति । मान्यध्यानद्वये यद्यपि चिन्ता निरोधो नास्ति तथापि ध्यानं करोतीत्युपचर्यते । कस्मात् 1 ध्यानकृत्यस्य योगापहारस्याचा तिघातस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावात्। यस्मात् साक्षात्कृत समस्त वस्तुस्वरूपेऽर्हति भगवति न किंचिपेयं स्मृतिविषयं वर्तते । तत्र यद्ध्यानं तत् असम कर्मणा समकरणनिमित्तम् । तदेवं निर्वाणमुखं तत्सुखं मोक्षयात् १, दर्शन दर्शनावरणक्षयात् २ ज्ञानं ज्ञानावरणक्षयात् ३, अनन्तवीर्यम् अन्तरायक्षयात् ४, जन्ममरणक्ष्यः आयुःक्षयात् ५, अमूर्तत्वं नामक्षयात् ६, नीचोद कुलक्षयः गोत्रक्षयात्, इन्द्रियजनितसुखक्षयः वेद्यक्षयात् ८ । इति तत्वार्थसुत्रोक्तं निरूपितम् । तथा चारित्रसारे ध्यानविचारः । शुक्लध्यानं द्विविधं पृथक्त्ववितर्कवी चार मेकत्व वितर्काची चारमिति शुक्रं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनमुचिछन्नक्रियानिवृतीन परमशुक्रमिति । तद्विविधं बाह्यमाध्यात्मिकमिति । गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहितं जम्भजृम्भोद्वारादिवर्जितम् उच्छिन्नप्राणापानचारस्यम् अपराजितस्त्वं बाधं तदनुमेयं परेषाम् आत्मानं स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते। पृथक्तवं नानात्वं, बितर्कों द्वादशाशश्रुतज्ञानं, वीचारो अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः व्यञ्जनमभिधानं तद्विषयोऽर्थः मनोवाक्कायलक्षणा योगाः, अन्योन्यतः परिवर्तन संक्रान्तिः । पृथक्त्वेन वितर्कस्य अयंव्यजनयोगेषु संकान्तिः वीचारों यस्मिन्नस्तीति तत्पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथमं शुक्रम् | अनादिसंभूतदीर्घसंसार स्थिति सागरपार जिगमिषुर्मुमुक्षुः स्वभावविजृम्मितपुरुषाकारसामर्थ्यात् द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु वा एकमवलम्ब्य संहृताशेषचित्तविक्षेपः महासवरसंवृतः कर्मप्रकृतीनां स्थित्यनुभाग हास्यन् उपशमयन् क्षपयेव परमबहुकर्मनिर्जरष्टिषु योगेषु अन्यतमस्मिन्वर्तमानः एकस्य द्रव्यस्य गुणं वा पर्यायं वा कर्म बहुमयगहन निलीनं पृथग्बलेनान्तर्मुहूर्तकालं ध्यायति, ततः परमार्थान्तरं संक्रामति । अथवा अस्यैवार्थस्य गुणे का पर्याय वा संक्रामति पूर्वयोगात् योगान्तरं व्यञ्जनात् व्यञ्जनान्तरं संक्रामतीति अर्थादर्थान्तरं गुणागुणान्तरं पर्याययान्तरेषु योगत्रयसंक्रमणेन तस्यैव ध्यानस्य द्वाचत्वारिंशद्धा भवन्ति । तद्यथा 1 षण्णां जीवादिपदार्थाना क्रमेण ज्ञानावरणगतिस्थितिवर्तनावगाहनादयो गुणास्तेषां विकल्पाः पर्यायाः । अर्थादन्योऽर्थः अर्थान्तरं गुणादन्यो हुए दो तीन पदों को घोघते ज्ञानगी होता है। ऐसा जान नहीं हैं तो 'अपने रचे हुए शिवभूति केवली होगया' भगवती आराधनाका यह कथन कैसे घटित हो सकता है ? शायद कोई कहें कि पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तो द्रव्य श्रुतका ज्ञान होता है किन्तु भावश्रुतका सम्पूर्ण छान होता है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्यों कि यदि पाँच समिति और तीन गुप्तिके प्रतिपादक द्रव्यश्रुतको जानता है तो 'मा रूसह मा दूसह' इस एक पदको क्या नहीं जानता ! अतः आठ प्रवचनमाताप्रमाणही भावश्रुत है द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं है । यह व्याख्यान हमारा कल्पित नहीं है किन्तु चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें मी ऐसाही कथन है । यथा - 'अन्तर्मुके पश्चातही जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न होजाता है ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानयर्तियोंको निर्मन्थ कहते हैं । उनको उत्कृष्टसे चौदह पूर्वरूपी श्रुतका ज्ञान होता है और जघन्य से पाँच समिति और तीन गुप्तिमात्रका ज्ञान होता है। कुछ लोग यह शंका करते हैं कि मोक्षके लिये ध्यान किया जाता है किन्तु आजकल मोक्ष नहीं होता, अतः ध्यान करना निष्फल है। किन्तु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्यों कि आजकल भी परम्परासे मोक्ष हो सकता है। जिसका खुलासा यह है - शुद्धात्माकी भावना के बलसे संसारकी स्थितिको कम करके जीव खर्गमें जाते हैं। और वहाँसे आकर रत्नत्रयकी भावनाको प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं । भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव वगैरह जो भी मुक्त हुए वे भी पूर्वभवमें मेद और अमेदरूप रमत्रयकी भावनासे संसारकी स्थिति को कम करके ही पीछेसे मुक्त हुए । अतः सबको उसी भवसे मोक्ष होता है ऐसा नियम नहीं है । इस तरह उक्त प्रकारसे घोडेसे श्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है || ध्यानके दो भेद भी हैं- सविकल्पक और निर्विकल्पक । धर्मध्यान सविकल्पक होता है
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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