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________________ ३९० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८७ गुणः गुणान्तरं पर्यायादन्यः पर्यायः पर्यायान्तरम् एवमर्थादर्थान्तरगुणगुणान्तरपर्यायपर्यायान्तरेषु षट्सु योगत्रयसंक्रमणाद् अष्टादश भक्ता भवन्ति १८ । अर्थागुणगुणान्तरपर्याय पर्यायान्तरेषु चतुर्षु योगत्रयसंक्रमणेन द्वादश भा भवन्ति १२ । एवमर्थान्तरस्यापि द्वादश भन्ना भवन्ति १२ । सर्वे पिण्डिता द्वाचत्वारिंशङ्गा भवन्ति ४२ । एवंविधप्रथमशुक्लध्यानमुपशान्तकषायेऽस्ति क्षीणकषायस्यादौ अस्ति । तत् शुक्लतरलेश्याचलाधानम् अन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् उपात्तार्थं व्यञ्जनयोगसंक्रमणं चतुर्दशदशनवपूर्वधारयतिनृषभनिषेध्यमुपशान्तक्षीणकषायविषयभेदात् स्वर्गापवर्गगतिफलदायकमिति । उत्कृष्टेन कियद्वारम् उपशमश्रेणीभारोतीति प्रश्ने प्राह । चित्तारि बारसमुवसमासेति समारुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय पिन्वादि ॥ उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वीरानेदारोहति क्षपितकर्मा शो जीवः । उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवा रोहति । संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो नियमेन निर्वात्येव निर्वाण प्राप्नोत्येव ॥ द्वितीयशुक्रभ्यानमुच्यते । एकस्य भावः एकत्वं वित्तकों द्वादशाङ्गः, [ अवीचारोऽसंक्रान्तिः । एकत्वेन वितर्कस्य श्रुतस्यार्थव्यञ्जन - योगानामवीचारोऽकान्तिर्यस्मिन् ध्याने तदेकत्ववितर्काचीचारं ध्यानम् ] एकयोगेन अर्थगुणपर्यायेष्वन्यतममन्यस्मिशवस्थानं पूर्ववित्पूर्वधारयतिवृषभनिषेध्यं द्रव्यभावात्मकज्ञानदर्शनावरणान्तरायघातिकर्मत्रयवेदनीयप्रमृत्यषातिकर्मसु केषांचिद्भावकर्मविनाशनसमर्थमुत्तमतपोऽतिशयरूपं पूर्वोक्तक्षीणकषायाविशिष्टकालभूमिकम् असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरं भवति । एवंविधद्वितीयशुक्रभ्यानेन घातित्रय विनाशानन्तरं केवलज्ञानदर्शनादिसंयुक्तो भगवान् तीर्थकर इतरो वा उत्कृष्टेन देशोन पूर्वं - कोटिकालं बिहरति सयोगिभट्टारकः । स यदा अन्तर्मुहूर्तशेषा युष्कः समस्थितिबेधनामगोत्रच भवति, तदा बादरकाययोगे स्थित्वा क्रमेण मादरमनोवचनोच्छ्वासनिःश्वास बादरकार्य च निरुध्य ततः सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा क्रमेण सूक्ष्ममनोवचनोच्छ्वासनिःश्वासं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगः स्यात् । स एवं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं तृतीयमिति । यदा पुनरन्तर्मुहूर्तशेषायुष्कः तदधिकस्थिविक्रमशः सयोगिजिनः समयैकखण्डके चतुः समये दण्डकपाठप्रतर लोकपूर्णाभिस्वात्मप्रदेशविसर्पणे जाते तावद्भिरेव समयैरुपसंहृतप्रदेशविसर्पणः आयुष्यसमीकृताघातित्रयस्थितिः निर्वर्तितसमुद्धातक्रियः पूर्वशरीरपरिमाणो भूत्वा 2 और शुक्लध्यान निर्विकल्पक होता है। आर्त और रौद्रध्यानको छोड़कर अपनी आत्मामें मनको लय करके आरमसुख स्वरूप परमध्यानका चिन्तन करना चाहिये । परमध्यान ही वीतराग परमानन्द सुखखरूप है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप है । परमध्यानही शुद्धात्मखरूप है, परम ध्यानही परमात्म स्वरूप है, एक देश शुद्ध निश्चय नयसे अपनी शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृतके सरोवर में राग आदि मलसे रहित होनेके कारण परमध्यान ही परमहंसस्वरूप है, परमध्यानही परमविष्णु स्वरूप है, परमध्यानही परम शिवखरूप है, परम ध्यानही परम बुद्ध स्वरूप है, परमध्यान ही परम जिनखरूप है, परम ध्यानही खात्मोपलमिललक्षण रूप सिद्धखरूप है, परम ध्यान ही निरंजन खरूप है, परम ध्यानही निर्मल स्वरूप है, परम ध्यानही खसंवेदन ज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मदर्शन है, परम ध्यान ही परमात्मदर्शनरूप है, परम ध्यानही ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव खरूप है, परम ध्यान ही शुद्ध चारित्र है, परम ध्यान ही अत्यन्त पवित्र है, परम ध्यान ही परमतत्त्व है, परम ध्यान ही शुद्ध आत्मद्रव्य है, क्यों कि वह शुद्ध आत्मद्रव्यकी उपलब्धिका कारण है, परमध्यान ही उत्कृष्ट ज्योति है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मानुभूति है, परमध्यान ही आत्मप्रतीति है, परमध्यान ही आत्मसंवित्ति है, परमध्यान ही स्वरूपकी उपलब्धिमें कारण होनेसे खरूपोपलब्धि है, परम ध्यान ही नित्योपलब्धि है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाधि है, परमध्यान ही परमानन्द है, परमध्यान ही नित्य आनन्दस्वरूप है, परमध्यान ही सहजानन्द है, परमध्यान ही सदा आनन्दखरूप हैं, परमध्यान ही शुद्ध आत्मपदार्थके अध्ययनरूप है, परमध्यान ही परम स्वाध्याय है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षका उपाय है, परमध्यान ही एकाग्रचिन्ता-निरोध ( एक विषय में मनको लगाना) है, | E
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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