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________________ -३२२] १२. धर्मानुप्रेक्षा छाया-भक्त्या पुज्यमानः व्यन्तरदेवः अपि ददाति यदि लक्ष्मीम्।तत् किं धर्मेण कियते एवं चिन्तयति सदृष्टिः ।] व्यन्तरदेवोऽपि क्षेत्रपालकालीचण्डिकायक्षादिलक्षणः भरुया बिनयोत्सवादिना पूज्यमानः आर्षतः सन् लक्ष्मी संपदा ददाति यदि चेत्, तो तहि धर्मः कयं कियते विधीयते । तथा चोक्तम् । “तावश्चन्द्रबलं ततो प्रहबल ताराबलं भूषलं, तावसिध्यति वाञ्छितार्थमखिल तावजन: सजनः । मुद्रामण्डलमत्रतत्रमहिमा तावत्कृत पौरुष, यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते ।।" तथा 'धर्मः सर्यसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिम्बतें' इत्यादिकम् एवं पूर्वोकप्रकारे च सम्यम्हाष्टिः चिन्तयति ध्यायति ॥ ३२ ॥ अथ सम्यरष्टिः एवं वक्ष्यमाणलक्षणं विचारयतीति गाथात्रयेणाह जं जस्स जम्मि' देसे जेण विहाणेण जम्भि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥ ३२१ ॥ [छाया-यत् यस्य यस्मिन् देशे येन विधानेन यस्मिन् काले । ज्ञात जिनेन नियतं जन्म वा अथवा मरणं वा॥] यस्य पुंसः जीवस्य यस्मिन् देशे अनवभकलितमरुमालवमलयाटगुर्जरसौराष्ट्रविषये पुरनगरकवटखेटमामवनादिके वा येन विधानेन शत्रण विधेग बैश्वानरेग जलेन सीतेन श्वासोच्छ्वासरुधनेनानादिविकारेण कुष्टमगंधरकुरैपिचण्डपीडाप्रमुखरोगेण हा यस्मिन् काले समयमुहर्तप्रहरपुतिमध्याहापरासंध्या दिवसपक्षमासवर्षादिके निग्रतं निश्चितं यत् जन्म अवतरणम् उत्पत्तिा अथवा मरणं वा शब्दः समुच्चयार्थः मुख दुःख लाभालाभामिष्टानिष्टादिकं गृह्यते । तत् सर्व कीदक्षम् । देशविधानकालादिकं जिनेन ज्ञाप्तं केवलज्ञानिनावगतम् ॥ ३२१ ॥ तं तस्स तम्मैि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सेकदि वारेइंदो या तेह जिर्णिदो वा ॥ ३२२ ॥ लक्ष्मी आदिक देते हैं तो फिर धर्माचरण करना व्यर्थ है। अर्थ-सम्यादृष्टि वचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करमेये ज्यन्तर देवी देवता भी लक्ष्मी दे सकते हैं तो फिर धर्म करनेकी क्या आवश्यकता है ? मात्रार्थ-लोग अर्थाकांक्षी हैं । चाहते हैं कि किसी भी तरह उन्हें धनकी प्राप्ति हो । इसके लिये वे उचित अनुचित, न्याय और अन्यायका विचार नहीं करते । और चाहते हैं, कि उनके इस अन्यायमें देवता भी मदद करें। बस वे देवताकी पूजा करते हैं बोल कबूल चढ़ाते हैं । उनके धर्मका अंग केवल किसी न किसी देवताका पूजना है । जैसे लोकमें वे धनके लिये सरकारी कर्मचारियोंको घुस देते हैं वैसे ही वे देवी देवताओंको भी पूजाके बहाने एक प्रकारकी धूस देकर उनसे अपना काम बनाना चाहते हैं। किन्तु सम्याद्दष्टि जानता है कि कोई देवता न कुछ दे सकता है और न कुछ ले सकता है, तथा धन सम्पत्तिकी क्षणभंगुरता भी वह जानता है । वह जानता है कि लक्ष्मी चंचल है, आज है तो कल नहीं है । तथा जब मनुष्य मरता है तो उसकी लक्ष्मी यहीं पड़ी रह जाती है । अतः वह लक्ष्मीके लालच में पड़कर देवी देवताओंके चक्करमें नहीं पड़ता । और केवल आत्महितकी भावनासे प्रेरित होकर वीतराग देवका ही आश्रय लेता है और उन्हें ही अपना आदर्श मानकर उनके बतलाये हुए मार्गपर चलता है । यही उनकी सच्ची पूजा है अतः किसीने ठीक कहा है-सभी तक चन्द्रमाका बल है, तभी तक ग्रहोंका, तारोंका और भूमिका बल है, तभी तक समस्त वांछित अर्थ सिद्ध होते हैं, तभी तक जन सज्जन हैं, तभी तक मुद्रा, और मंत्र तंत्रकी महिमा है और तभी तक पौरुष भी काम देता है जबतक यह पुण्य है। पुण्यका क्षय होने पर सब बल क्षीण हो जाते हैं ।। ३२०।। सम्यग्दृष्टि और मी विचारता है। अर्थ-जिस जीवके जिस देशमै, जिस कालमें, जिस विधानसे जो जन्म १स जहि । २१ कुढंदर। ३ग तम्हि । ४ स कालम्हि। ५लग सका चालेदु। ६ ग मह निर्णदो।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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