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स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा
[गा० ३१९
त्रिशल्यदिपार्वतीगङ्गादिमण्डितं हर सावित्रीगायत्यादिमण्डितं ब्रह्माणम् इत्यादिकं देवं यः मनुते धधाति से मिथ्यादृष्टिः स्यात् । च पुनः, यः जीवहिसादिसंयुतं धर्म मन्यते मनुते । अजागोगजतुरगमेधादियाशिकीहिंसाधर्म देवदेवीपितरार्थ चेतनाचेतनाना जीवानां विराधनाधर्म देवगुरुधर्माद्यर्थ सैन्यादिचूरग धर्मम् इति जीवहिंसानृतस्तेयब्रह्मचर्यखण्डनपरिप्रहादिमेलनादिसहितं धर्म मन्यते श्रदधाति स मिथ्यादृष्टिः । च धुमः, प्रन्यासकं गुरु क्षेत्रवास्तुधनधान्यद्विपदलीप्रमुखपरिमसहित गुरु दिगम्बरगुरुं बिना अन्यगुरुं मन्यते अलीकरोति यः स मिथ्यावृष्टिर्भवेत् ॥३१॥ अथ केऽप्येवं बदन्ति हरिहरादयो देवा लक्ष्मी ददति उपकार च कर्यते तदायसत् इति निगढति
ण य को वि देदिलच्छी को वि' जीवस्स कुणदि उक्यारे ।
ज्ययार अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१९ ॥ [छाया-न च का अपि ददाति लक्ष्मी न कः अपि जीवस्य करोति उपकारम् । उपकारम् अपकार कर्म अपि शुभाशुभ करोति ॥] कोऽपि देनः हरिहरहिरण्यगर्भगजतुण्डमूषकवाहनसिद्धिपुद्धिकलनलक्षलाभपुत्रादिमण्डितगणपत्यादिलक्षणो देवा, म्यन्तर चण्डिक्राशक्तिकालीयक्षीयक्षक्षेत्रपालादिको वा, ज्योतिष्कसूर्यचन्द्रग्रहादिको वा, लक्ष्मी खर्णरनधनधान्यपुत्रकलत्रमित्रगजतुरंगरयादिसंपदा ददाति प्रयच्छति वितरति । च पुनः, कोऽपि हरिहरहिरण्यगर्भगणेशकपिलसौगतव्यन्तरचण्डिकादेवदेवीलक्षणः जीवस्यात्मनः उचगारे सुखदुःस हिताहितेष्टानिष्टारोग्यरोगप्राप्तिपरिहाररूपमुपग्रह करोति । नन्वहो सुखदुःखादिकं लक्ष्मीप्राप्तिकरण कोऽपि देवो न करोति तह कः कुरुते । परिहारमाह । शुभाशुभकर्मापि पूर्वोपार्जितप्रशस्वाप्रशस्त फर्म पुण्यकर्म पापकर्म जीवस्य उपकार लक्ष्मीसंपदादिकं सुखहितवाञ्छितवस्तुप्रदानम् अपकारम् अशुभमसमीचीन दुःखदारियरोगाहितलक्षण च कुरुते विदधाति । शुभाशुभकर्म जीवस्य सुखदुःखादिक करोतीत्यर्थः ॥ ३१९ ॥ अथ व्यन्तरदेवादयो लक्ष्म्यादिकं वितरन्ति, सहि धर्मकरणं व्यर्थमिति सष्टयति
भत्तीऍ पुज्जमाणो वितर-देवो वि देदि जदि' लच्छी।
तो किं धम्में कीरदि' एवं बितेइ सहिडी ॥ ३२० ॥ घोडे, जमीन, जायदाद और नौकर चाकर वगैरह विभूतिका ठाट राजा महाराजाओंसे कम नहीं होता, ऐसे परिग्रही महन्तोंको धर्मगुरु मानता है, वह नियमसे मिच्यादृष्टि है ॥ ३१८ ॥ किन्हींका कहना है कि रिहर आदि देवता लक्ष्मी देते हैं, उपकार करते हैं किन्तु ऐसा कहना मी ठीक नहीं है । अर्थ-न तो कोई जीवको लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीवका उपकार और अपकार करते हैं । भावार्थ-शिव, विष्णु, मझा, गणपति, चण्डी, काली, यक्षी, यक्ष, क्षेत्रपाल वगैरह अथवा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह वगैरह सोना, रन, स्त्री, पुत्र, हाथी, घोडे आदि सम्पदा देनेमें असमर्थ हैं । इसी तरह ये सब देवता सुख, दुःख, रोग, नीरोगता आदि देकर या हरकर जीवका अच्छा या बुरा भी नहीं कर सकते हैं। जीव जो अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका उदय ही जीवको सुख, दुःख, आरोग्य अथवा रोग आदि करता है । इसीसे आचार्य अमितगतिने सामायिक पाठमें कहा है-'इस आत्माने पूर्व जन्ममें जो कर्म किये हैं उनका शुभाशुभ फल उसे इस जन्ममें मिलता है। यदि कोई देवी देवता शुभाशुभ कर सकता तो स्वयं किये हुए कर्म निरर्थक होजाते हैं । अतः अपने किये हुए कोंके सिवा प्राणीको कोई भी कुछ नहीं देता, ऐसा विचारकर कोई देवी देवता कुछ देता है इस बुद्धिको छोड़ दो ॥ ३१९ ॥ आगे कहते हैं कि यदि व्यन्तर देवी देवता वगैरह
१५। २सग कोइ, बणय को वि।
देश जइ। ४कम स ग धम्म । ५ व कीरह ।