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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा ३२५ अग्गी विथ होदि हिमं होदि मुयंगो वि उत्तम रयणं । जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किंकरा होति ॥ ४३२ ॥ [मया-अमिः अपि च भवति हिम भवति भुजाः अपि उत्तम रनम् । जीवस्य सुधर्मात् देवाः अपि च कारा रागोक्तयतिभावधर्मात, अपि च विशेषे, अभिः वैशालरः टिम शीतलो भवति । भुजङ्गोऽपि उत्तमै रजम् अनर्यो मणिर्भवति । महाविषधरकृष्णसर्पः रममाला पुष्पमाला च भवति । तथा च पुन देवाः भवनभ्यन्तरज्योतिष्कक्रस्पवासिनः सुराः किंकराः सेवका भत्या भवन्ति । अपिशब्दात मानवाः किकरा भवन्ति । उकै च । "धम्मो मंगलमुबिई अहिंसा संजमो तवो । देवा चि तस्स पणमति जरस धम्ने सया मणौ ॥" इति ।। ४३२॥ तिक्खं खग्गं माला दुजय-रिजणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पि अभियं महापया संपया होदि ।। ४३३ ।। [छाया-तीक्ष्णः खङ्गा माला दुर्जयरिपकः सुखंकराः सुजनाः । हालाहलम् अपि अमृतं महापदा संपदा भवति ॥] धर्मस माहात्म्येन धर्मवतः युंसः इति सर्वत्र संबन्धनीयम् । तीक्ष्णः शितः खलः मसिः माला पुष्पसमवति। सपा दुर्जयारपवः दुःसाध्यशत्रवः सुखंफरा: सुखसाधकाः सुजनाः सम्बना उत्तमपुरुषाः खपरहितकारकाः स्वकीयजना वा बायन्ते । तथा हालाहल तारकालिकमरणकारिविष कालकूट विषम् अमृतं सुधा जायते। तथा महापदा महसका संपदा संपतिर्भवति ॥ ४३३ ॥ अलिय-षयणं पि स उजम-रहिए वि लच्छि-संपत्ती । धम्म-पहावेण णरो अणओ वि सुहकरो होदि ॥ ४३४ ॥ [छाया-अलीकवचनम् अपि सत्सम् उद्यमरहिते अपि लक्ष्मीसंप्राक्षिः । धर्मप्रभावेण नरः अनयः अपि सुखकरः भवति ॥] तथापि निश्चित धर्मप्रभावेण श्रीजिनधर्ममाहात्म्यात् धर्मवतः पुंसः अलीकदाचन कार्यात् कारणावा रागद्वेषाद्वा ये सब धर्मरूपी वृक्षके सुफल हैं ॥ ३१ ॥ अर्थ-उत्तम धर्मके प्रभावसे अग्नि शीतल हो जाती है, महा विषधर सर्प रतोंकी माला होजाता है, और देव नी दास हो जाते हैं ॥ ४३२ ॥ अर्थ-उत्तम धर्मके प्रभावसे तीक्ष्ण तलवार माला हो जाती है, दुर्जय शत्रु सुख देने वाले आत्मीय जन बन जाते है, तत्काल मरण करने वाला हालाहल विष भी अमृत हो जाता है, तथा बड़ी भारी आपत्ति मी संपदा हो जाती है || ४३३ ॥ अर्थ-धर्मके प्रभावसे जीवके झूठे वचन भी सच्चे हो जाते है, उपम न करनेवाले मनुष्यको मी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है, और अन्याय मी सुखकारी हो जाता है। भावार्थ-आशय यह है कि यदि जीवने पूर्वभवमें धर्मका पालन किया है तो उसके प्रभावसे उसकी झूठी बात भी सधी हो जाती है, बिना परिश्रम किये भी सम्पति मिल जाती है और अन्याय करते हुए भी यह सुची रहता है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि अन्याय करने का फल उसे नहीं मिलता या डूंठ बोलना और अन्याय करना अच्छा है बल्कि धर्मके प्रभावसे अन्याय भी न्यायरूप हो जाता है। धर्मका प्रभाव बतलाते हुए किसी कविने भी कहा है, जो लोग धर्मका आचरण करते हैं, उनपर सिंह, सर्प, जल, अग्नि आदि के द्वारा आई हुई विपत्तियों नष्ट हो जाती है, सम्पत्तियां प्राप्त महोति। २ च ग सहकरो सुरगो। इस रहिये ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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