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________________ स्वामिकार्तिकेयानुभेक्षा [गा. ४३१"णरतिरिय वेसअयदा उहस्सेणच्झदो ति जिम्मथा। पर अयवदेसमिछा गेवेतो नि गच्छति ॥ सम्बट्टो सि मुदिट्टी महबई भोगभूमिजा सम्मा। सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य बरे ॥ चरया य परिष्वाजा बम्होत्तरपदो ति भागीवा । अणुदिसमणुतरादो चुदा ण केसवपद जंति ॥" ति । तथा योकं च । “प्रापदेव तब नुतिपदजीवकेनोपविष्टः, पापाचारीमरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्। कः संदेहो यदुपलभते वासवधीप्रभुत्वं, जल्पन आप्यमणिभिरमसेस्स्वन्नमस्कारचकम् ॥" "अर्हचरणसपर्यामहानुभाव महात्मनामवदत् । मेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनकेन राजगृहे ॥” तथा । "धर्म: सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म घुधाश्चिन्यते, धर्मणैव समाप्यते शिवसुर्ख धर्माय तस्म नमः । धर्माचास्ति परः सुहृद् भवभूतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमई दधे प्रतिदिनं हे धर्म मां पालय ॥" "सुकुलजन्मविभूतिरनेकधा प्रियसमागमसौख्यपरंपरा । नृपकुले गुप्ता विमलं यशो भवति धर्मतरोः फलमीदृशम् ॥” इति ॥ ४३१ ॥ देव होते हैं। गाथामें आये हुए 'वि' शब्दसे इतना अर्थ और लेना चाहिये कि उत्तम धर्मसे युक्त मनुष्य मरकर उत्तम देव होता है । अर्थात् श्रावकधर्मका पालन करनेवाला मनुष्य भरकर सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत खर्ग पर्यन्त इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक आदि जातिका कल्पवासी देव होता है। तथा मुनिधर्मका पालक मनुष्य मरकर सौधर्मस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जन्म लेता है। अथवा सकल कोको नष्ट करके सिद्धपदको प्राप्त करता है। तथा सम्यक्त्व प्रत आदि उत्तम धर्मका पालक चाण्डाल भी मरकर उत्तम देव होजाता है । कौन २ मनुष्य और तिर्यश्च मरकर उत्कृष्टसे कहाँ २ उत्पन्न होते हैं, इसका वर्णन त्रिलोकसारमें इस प्रकार किया है-देशवती और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च मरकर अधिकसे अधिक सोलहवें खर्ग तक जन्म लेते हैं। द्रव्यलिंगी, किन्तु भावसे असंयत सम्यम्दृष्टि अथवा देशवती अथवा मिथ्यादि मनुष्य अवेयक तक जन्म लेते हैं ॥ सम्यादृष्टि महाव्रती मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जन्म लेते हैं । सभ्य भोगभूमया जीप कार सवालमें मार लेते हैं और मिथ्या दृष्टि भोगभूमिया जीव मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं। तथा उत्कृष्ट तापसी भी मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं ॥ नंगे तपस्त्री और परिवाजक ब्रह्मोत्तर खर्ग तक जन्म लेते हैं । आजीवक सम्प्रदायवाले अच्युत वर्ग तक जन्म लेते हैं। अनुदिश और अनुत्तरोंसे ध्युत हुए जीव नारायण प्रतिनारायण नहीं होते ॥ वादिराजसूरिने एकीभावस्त्रोत्रमें नमस्कार मंत्रका माहात्म्य बतलाते हुए कहा है। हे जिनबर, मरते समय जीवन्धरके द्वारा सुनाये गये आपके नमस्कार महामंत्रके प्रभावसे पापी कुत्तो नी भरकर देव गतिके सुखको प्राप्त हुआ। तब निर्मल मणियोंके द्वारा नमस्कार मंत्रका * जप करने वाला मनुष्य यदि इन्द्रकी सम्पदाको प्राप्त करे तो इसमें क्या सन्देह है। खामी समन्त मदने जिनपूजाका माहात्म्य बतलाते हुए श्री स्नकरंडश्रावकाचारमें कहा है राजगृही नगरीमें आनन्दसे मत्त होकर भगवान महावीरकी पूजाके लिये एक फल लेकर जाते हुए मेढ़कने महात्माओंको मी बतला दिया कि अईन्त भगवानके चरणोंकी पूजाका क्या माहात्म्य है ॥ धर्मका माहात्म्य बतलाते हुए किसी कषिने कहा है "धर्म सब सुखोंकी खान है और हित करने वाला है। (इसीसे) बुद्धिमान लोग धर्मका संचय करते हैं। धर्मसे ही मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । उस धर्मको नमस्कार हो । संसारी प्राणियोंका धर्मसे बढ़कर कोई मित्र नहीं । धर्म का मूल दया है। अतः मैं प्रतिदिन अपना पिस धर्ममें लगाता हूँ। हे धर्म मेरी रक्षा कर ॥ और भी कहा है अच्छे कुलमें जन्म, अनेक प्रकारकी विभूति, प्रिय जनोंका समागम, लगातार सुखकी प्राप्ति, राजघराने आदर सन्मान और निर्मल पथ,
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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