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________________ -२३] १०. लोकरक्षा १५५ कालः पुनः मनुष्यकत्रे स्फुटं शासभ्यः । कुतः । ज्योतिष्काण बारे स समान इति कारणात्। 'ववारी पुण तिथि सीदो वगो भविस्य तु । धीयो संखेनाम लिदसिद्धाणं पमाणो दु ॥ व्यवहारकालः पुननिधिः । अवीदानागतवर्क्स. मानवेति । तु पुनः, तत्राधीतः संख्याताय विगुणितसिद्धराशि र्भवति ३ ॥ २१ ॥ कृतः । अष्टोत्तरषट्शत जीवानां मुक्तिगमन समयाधिकषण्मासाः तदा सर्वजीवराश्यनन्तैकमागमुकजीवानां कियानिति त्रैराशिकागतस्य तत्प्रमाणत्वात् । ६०८ फ माइ ३ ३२ 'मयो हु बट्टमाणो जीवाशे सव्वमोग्गलादो वि । भावी भ्रणतगुनिदो इदि दवारो वे कालो ॥ वर्तमानकाल: ख एकसमयः, भाविकालः सर्वजीवराशितः १६ धर्मपुद्रलराधितो १६ ऽप्यनन्तगुणः १६ सय इतिहारका विविध व्यचतुष्टयनिरूपण समासम् ।। २२१ ॥ अथ प्रव्याणां कार्यकारणपरिणामभावं निरूपयति पु- परिणाम- जु कारण-भावेण वठ्ठदे दव्वं । उत्तर - परिणाम- जुदं तं चिय कर्ज हवे णियमा ॥ २२२ ॥ [मा-पूर्व परिणामबुके कारणभावेन वर्तते द्रव्यम् | उमरपरिणामयुकं तत् एवं कार्म भवेत् नियमात् ॥ ] द्रव्यं जीवादिवस्तु पूर्वपरिणामयुतं पूर्वपर्यायायितुं कारणभावेन उपादानकारणत्वेन देठे । तदेव हव्यं जीवादिनस्तु उत्तरपरिणामवुकम् उत्तरपर्यायानिष्टं तदेव अभ्यं पूर्वपर्यायाविष्टं कारणभूतं मणिमन्त्रादिना अप्रविद्धसामध्ये कारणारावैकल्येम उत्तरक्षणे कार्य निष्पादन्यस्येव । यथा आवानवितानात्मकास्तन्तवः अप्रतिबद्धसामर्थ्याः कारणान्तरावैकल्या अन्यश्चर्ण प्राप्ताः पटस्य कारणम्, उत्तरक्षणे पटस्तु कार्यम् । तथा चोकमष्ठ सहस्याम् । 'कार्योत्पादः खो देतोर्नियमाद् क्षणात पृथक इति ॥ २२२ ॥ अथ त्रिष्वपि कालेषु वस्तुनः कार्यकारणभाव निश्चिनोति कारण-कण-विसेसातीसु वि कालेसु हुति' वत्थूर्ण | एकेकम्मि य समए पुग्वुत्तर-भावमासिज्य || २२३ ॥ संख्यात आवलीसे सिद्धराशिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आये वही अतीतकालका प्रमाण है । इसकी उपपत्ति इस प्रकार है-यदि ६०८ जीवोंके मुक्तिगमन का काल छः माह और आठ समय होता है तो समस्त जीवराशिके अनन्त भाग प्रमाण मुक्त जीवोंके मुक्तिगमनका काल कितना है ? इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर जो प्रमाण आता है वही अतीतकालका प्रमाण है। वर्तमानकालका प्रमाण एक समय है | और समस्त जीन राशि और समस्त पुजल राशिसे अनन्तगुना भाविकाल है । इस प्रकार व्यवहार कालका प्रमाण जानना चाहिये । इस तरह धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यका वर्णन समाप्त हुआ || २२१ || अब द्रव्योंके कार्यकारण भावका निरूपण करते हैं । अर्थ- पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियमसे कार्यरूप है । भावार्थप्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय परिणमन होता रहता है, यह पहले कहा है । उसमेंसे पूर्वक्षणवर्ती द्रव्य कारण होता है और उत्तरक्षणवर्ती द्रव्य कार्य होता है। जैसे लकड़ी जलनेपर कोयला हो जाती और कोयला जलकर राख हो जाता है। यहाँ लकड़ी कारण है और कोयला कार्य है। तथा कोक्ला कारण और राख कार्य है क्योंकि आप्तमीमांसा में भगवान समन्तभद्रने कहा है कि कारणका विनाश ही कार्यका उत्पाद है । अतः पहली पर्याय नष्ट होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। इसलिये पूर्वपर्याय उत्तर पर्यायका कारण है और उत्तर पर्याय पूर्व पर्यायका कार्य है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यमें कार्य कारण भावकी परम्परा समझ लेनी चाहिये ॥ २२२ ॥ आगे तीनों कालोंमें वस्तुके कार्य कारण १क्रम सविर, गतस्तु २ ख स वोंषि (१) । म मासेा ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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