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________________ खामिकास्कियानुभेक्षा [गा० २४[छायाकारणकार्यविशेषाः त्रिभु आप का भवन्ति वस्तूनाम् । एकस्मिन् समय पूर्वसरमाबमाताधा] वस्तूना जीवादिद्रव्याणी, निष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानलक्षगेषु कालेषु, एकैकस्मिन् एकस्मिन् एकस्मिन् समये समये क्षणे क्षणे कारणकार्यविशेषाः हेतुफतभावाः इम्पपर्यायरूपा भवन्ति । खा। पूर्वोत्तरभाषमाधिस्य, पूर्व पर्यायम् उत्तरपर्याय च भात्रिय चित्वा, एककस्मिन् समये वस्त्पादध्ययधौम्यात्मकं भवति । 'उत्पादन्थयौव्ययुक सत्' । इति उमाखातिवचनात् । यथा एकस्मिम् समये मृस्पिण्डस्य विनाश एक घटस्योरपादः मध्येण धौम्यम् इत्येकस्मि- लेक समये पूर्वोत्तरभावन कारणकार्यरूपेण उत्पापविनाशो स्तः ॥ २२३ । बयानन्तधर्मात्मक वस्तु निर्णयति संति अर्णताणता तीसु वि कालेसु सच-दधाणि । सर्व पि अणेयंतं तत्तो भणिदं जिणेदेहि ॥ २२४ ॥ [अया-सन्ति अनन्तामन्ताः त्रिषु अपि कायेषु सर्वदल्याणि । सर्वम् अपि मनेकान्त ततः भणितं जिनेन्द्रः॥] तत्तो ततः तस्मारकारणात् जिनेन्द्रः सर्वहः सर्वमपि वस्तु मत्वेकम् बनेकान्तम् भनेकान्तात्मकं निस्यनित्यायनेकारतरूप, यवः सर्वध्याणि सर्वाणि जीवपुरलारीनि वस्तुनि, विष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानकालेषु, अनन्तानम्ताः सन्ति भनम्तानन्तपर्यायारमकानि भवन्ति अनन्तानन्तसदसचिस्यानित्यायनेकधर्मविशियानि भवन्ति । अतः सर्व जीवपद्रमविकं इम्यं जिनेन्द्रः सप्तभन्या कृत्वा अनेकान्तं मणितम् । तात्कथमिति वेबुच्यते। 'एकस्मिनविरोधेन प्रमाणनवायतः। सदादिम्पनाच सप्तमजीति सा मता ॥' स्यादस्ति । स्यात्कयचित् विवक्षितप्रकारेण खाण्यखक्षेत्रखाकामाखमावरमावका निश्चय करते हैं। अर्थ-वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामको लेकर तीनोंही कार्लोमें प्रत्येक समयमै कारणकार्यभार होता है। मावार्थ-वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक होती है। तत्त्वार्यसूत्रमें उसे ही सत् कहा है जिसमें प्रतिसमय उत्पाद व्यय और प्रौय्य होता है । जैसे, मिडीका पिण्ड नष्ट होकर घट बनता है। यहाँ मिट्टीके पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद एक ही समयमें होता है तथा उसी समय पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद होनेपर मी मिट्टी मौजूद रहती हैं। इसी तरह एकही समयमै पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय होता है । अतः तीनों कालोंमें प्रत्येक द्रव्यमें कारण कार्यकी परम्परा चाल रहती है। जो पर्याय अपनी पूर्व पर्यायका कार्य होती है वही पर्याय अपनी उत्तर पर्यायका कारण होती है । इस तरह प्रत्येक द्रव्य खयं ही अपना कारण और स्वयं ही अपना कार्य होता है ।। २२३ ॥ बामे यह निश्चित करते हैं कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अर्थ-सब द्रव्य तीनोंही कालोंमें अनन्तानन्त है। अत: जिनेन्द्रदेवने समीको अनेकान्तात्मक कहा है॥ भावार्थ-तीनोंही कार्लोमें प्रत्येक द्रव्य अनन्तानन्त है; क्योंकि प्रति समय प्रत्येक द्रव्यमें नवीन नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय नष्ट होजाती है फिर मी द्रव्यकी परम्परा सदा चालू रहती है। अतः पर्यायोंके अनन्तानन्त होनेके कारण द्रव्य मी अनन्तानन्त है। न पर्यायोंका ही अन्त आता है और न द्रव्यका ही अन्त आता है। इसीसे जैनधर्ममें प्रत्येक वस्तुको अनेक धर्मवाली कहा है। इसका खुलासा इस प्रकार है। जैनधर्ममें सत् ही द्रव्यका लक्षण है, असत् या अभाव नामका कोई खतंत्र तत्त्व जैन धर्ममें नहीं माना । किन्तु जो सत् है यही दृष्टि बदलनेसे असत् हो जाता है। न कोई वस्तु केवल सत् ही है और न कोई वस्तु केवल असत् ही है | यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत् ही माना जायेगा तो सब वस्तुओंके सर्वधा सत् होनेसे उनके बीच जो मेद देखा जाता है उसका लोप हो जायगा । और उसके लोप होनेसे सब बस्तुएँ परस्परमें १यचिए 'जगालाम' इति पाठः। २0ग जिमवेहि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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