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________________ -२२४ ] १०. लोकानुप्रेक्षा ष्टयापेक्षमा द्रव्यमस्तीत्यर्यः ॥ १ ॥ स्यान्नास्ति । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परहृष्यपरक्षेत्र पर कानपरमानचतुष्टयापेक्षा जनाः ॥ २ ॥ स्यास्ति । स्मात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्ववनपव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्तिनास्तीत्यर्थः ॥ ३ ॥ स्यादवभ्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण युगपद्वशुमशक्यत्वात्, कमनतिनी भारतीति वचनात् युगपत्वद्रव्यपरवस्या दिचतुष्टयापेक्षया श्रम्बमयतव्यमित्यर्थः ॥ ४ ॥ स्यावस्त्यवतव्यम् । स्वात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण खय्यादिचतुरयापेक्षया [ युगपस्खद्रव्यपरवम्यादिचतुष्टयापेक्षया च स्यावस्त्यवतव्यम् इत्यर्थः ॥ ५ ॥ स्यान्नास्त्यवक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्वा व्यपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया च] द्रयं नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ६ ॥ स्यादस्ति नास्त्य वक्तव्यम् । स्यात् कथंचित् क्विझितप्रकारेण *मेण खपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया युगपत्स्वपरव्यादिचतुष्टयापेक्षया च द्रव्यमस्ति नास्त्यवक्तव्यमित्यर्थः ॥ ७ ॥ ता एकस्मिन् समये एकमपि द्रव्यं स्वव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित्सत् परद्रव्यचतुष्टयापेक्षया कथंचित् असत् राम्यापेक्षया एकमेक हो जायेंगी । उदाहरण के लिये, घट और पट ये दोनों वस्तु हैं । किन्तु जब हम किसीसे घट लानेको कहते हैं तो वह घट ही लाता है । और जब हम पट लानेको कहते हैं तो वह पर ही लाता है । इससे सिद्ध है कि घट घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही है घट नहीं है। अतः दोनोंका अस्तित्व अपनी २ मर्यादा में ही सीमित है, उसके बाहर नहीं है। यदि वस्तुएं इस मर्यादाका उल्लंघन कर जायें तो सभी वस्तुएँ सबरूप हो जायेंगी । अतः प्रत्येक वस्तु खरूपकी अपेक्षासे ही सत् है और पररूपकी अपेक्षा असत् है । जब हम किसी वस्तुको सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि वह वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा से ही सत् कही जाती है, अपनेसे अन्य वस्तुओंके स्वरूपकी अपेक्षा संसारको प्रत्येक वस्तु असत् है । देवदत्तका पुत्र संसार भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भरके पुत्रका पिता है। इससे क्या यह नतीजा नहीं निकलता कि देवदत्तका पुत्र पुत्र है और नहीं भी है। इसी तरह देवदत्त पिता है और नहीं भी है। अतः संसारमें जो कुछ सत् है वह किसी अपेक्षासे असत् भी है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नहीं है। अतः एक ही समय में प्रत्येक द्रव्य सत् मी हैं और असत् भी है। स्वरूपकी अपेक्षा सत् है और परद्रव्यकी अपेक्षा असत् है । इसी तरह एक ही समयमें प्रत्येक वस्तु नित्य भी है और अनिस्य भी है। द्रव्यकी अपेक्षा निम्न है, क्योंकि इव्यका विनाश नहीं होता, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है; क्योंकि पर्याय नष्ट होती है । तथा एक ही समय प्रत्येक वस्तु एक भी है और अनेक भी है। पर्यायकी अपेक्षा अनेक है क्योंकि एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं और द्रव्यकी अपेक्षा एक है। तथा एकही समयमें प्रत्येक वस्तु मिन मी है और अमिन भी है। गुणी होनेसे अभेदरूप है और गुणोंकी अपेक्षा मेदरूप है; क्योंकि एक वस्तु अनेक गुण होते हैं । इस तरह वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उस अनन्त धर्मात्मक वस्तुको जानना उतना कठिन नहीं है जितना शब्दके द्वारा उसका कहना कठिन है; क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मोंको एक साथ जान सकता है किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्मको कह सकता है । इसपर भी शब्दकी प्रवृत्ति बक्ताके अधीन है। वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचनव्यवहार करता है । जैसे देवदत्तको एक ही समय में उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता है। पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदन्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है। किन्तु पिता भी है और पुत्र भी हैं। इस लिये पिताकी दृष्टि से देवदत्तका पुत्रत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं r
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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