________________
खामिकार्तिकेयानुपेक्षा
[गा० २२५ नित्यत्वं पर्यायापेक्षयानित्यवम्, अध्यापेक्षया एकस्वं पर्यायापेक्षयानेकत्वम्, गुणगुषिभावेन भिनत्वं तयोरष्यतिरेकेण कंचित् अभिनत्यम् इत्यायनेकधर्मात्मक वस्तु अनन्तानन्तपर्यायात्मक व्यं कथ्यते ॥ २२४ ॥ अथ वस्तुनः कार्यकारिस्पमिति निगदति
जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कर्ज करेदि णियमेण ।
बहु-धम्म-जुदं अत्थं कज-करं दीसदे' लोए ॥ २२५ ॥ और पुत्रकी दृष्टिसे देवदत्तका पितृत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं। क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुके जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता है और शेष धर्म गौण । अतः वस्तुके अनेक धर्मात्मक होने और शब्दमें पूरे धर्मोको एक साथ एक समयमें कह सकनेकी सामर्थ्य न होनेके कारण, समस्त वाक्योंके साथ 'स्यात्' शब्दका व्यवहार आवश्यक समझा गया, जिससे सुनने वालोंको कोई धोखा न हो । यह 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्ममें इतर धर्मोका द्योतक या सूचक होता है । 'स्यात्' का अर्थ है 'कथंचित् या किसी अपेक्षासे'। यह बतलाता है कि जो सत् है वह किसी अपेक्षासे ही सत् है । अतः प्रत्येक वस्तु 'स्यात् सत्' और 'स्यात् असत्' है। इसीका नाम स्याद्वाद है। वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर अविरोध पूर्वक विधिप्रतिषेधका कथन सात भङ्गों के द्वारा किया ' जाता है । उसे सप्तभंगी कहते हैं । जैसे वस्तुके अस्तित्व धर्मको लेकर यदि कथन किया जाये तो वह इस प्रकार होगा-'स्यात् सत्' अर्थात् वस्तु खरूपकी अपेक्षा है १ । 'स्यात् असत्'-यस्तु पररूपकी अपेक्षा नहीं है २ । 'स्यात् सत् स्यात् असत्-वस्तु खरूपकी अपेक्षा है और पररूपकी अपेक्षा नहीं है । इन तीनों वाक्योंमेंसे पहला वाक्य वस्तु का अस्तित्व बतलाता है, दूसरा वाक्य नास्तित्व बतलाता है, और तीसरा वाक्य अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धौंको क्रमसे बतलाता है। इन दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता, क्योंकि एक शब्द एक समयमें विधि
और निषेधसे एकका ही कयन कर सकता है। अतः ऐसी अवस्थामें वस्तु अवक्तव्य ठहरती है, अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता । अतः 'स्यात् अवक्तव्य' यह चौथा भा है । सप्तभंगीके मूल ये चार ही भंग हैं। इन्हींको मिलानेसे सात भंग होते हैं । अर्थात् चतुर्थ भंग 'स्यात् अवक्तव्य' के साथ क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पांचवां, छठा और सातवा भंग बनता है। यथा, स्यात् सदयतन्य ५, स्वादसदवक्तव्य ६, और स्यात् सदसदवक्तव्य ७ । यानी वस्तु कथंचित् सत् और अवक्तव्य है ५, कपंचित् असत् भऔर अवक्तव्य है ६, तथा कथंचित् सत्, कथंचित् असत् और अवक्तव्य है । इन सात भंगोमैसे वस्तुके अस्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे प्रथम भंग है, नास्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे दूसरा भंग है । क्रम से 'अस्ति' 'नास्ति' दोनों धाँकी विषक्षा होनेसे तीसरा भंग है । एक साथ दोनों धर्माकी विवक्षा होनेसे चौथा भंग है। अस्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे पांचवा भंग है । नास्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा होनेसे छठा भंग है । और क्रमसे तथा युगपत् दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे सातवां भंग है । इसी तरह एक अनेक, नित्य अनित्य आदि धर्मों में भी एककी विधि और दूसरेके निषेधके द्वारा सप्तभंगी लगा लेनी चाहिये ॥ २२४ ॥ आगे बतलाते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तु ही अर्थ
१म करे (१)। २०मसग दीसए ।