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१०. लोकानुप्रेक्षा
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[ छाया-यत् वस्तु अनेकान्तं तत् एष कार्य करोति नियमेन । बहुधर्मयुतः अर्थः कार्यकरः दृश्यते लोके ॥ ] तदेव वस्तु जीवादिपदार्थ नियमेन अवश्यंभावेन कार्यं करोति । मद्वस्तु अनेकान्तम् अनेकखरूपम् अनन्तधर्मात्मकम् अनन्तानन्तगुणपर्यायात्मकम् । तथा चोकं जैनेन्द्रे श्री पूज्यपादेन । 'सिद्धिरनेकान्तात् । लोके जगति, अर्थः जीवादिपदार्थः, बहुधर्मयुक्तः सदसन्नित्यानित्य भिन्नाभिन्नास्तिनास्त्याद्यनेकस्वभावयुक्तः, कार्यकरः अर्थक्रियाकारी, दृश्यते अवलोक्यते । [ एकमपि द्रव्यं कथं सप्तमात्मकं भवति । प्रश्नपरिहारमाह । ] यथा एकोऽपि देवदत्तः पुमान् गौणमुख्यविवक्षाशेन बहुप्रकाशे भवति । पुत्रापेक्षया पिता भण्यते। सोऽपि खकीयपित्रपेक्षया पुत्रो भव्यते। मातुलापेक्षया भागिनेयो भव्यते । स एव भागिनेयापेक्षया मातुलो भण्यते । भार्यापेक्षा भर्ता भव्यते । भगिन्यपेक्षया भ्राता भयते । विपक्षापेक्षानुर्भुज्यते । इष्टापेक्षया मित्रं मन्यते इत्यादि । तथैकमपि श्रव्यम् अनेकात्मकम् इत्याधने क घर्माविष्टः पुरुषः अनेककार्यं कुर्वन् दृष्टः । एवं सर्व वस्तु अनेकान्तात्मकं सत्त्वात् इत्ययं हेतुः सर्वस्य वस्तुनः अनेकधर्मत्वं साधयत्येव ।। २१५ ॥ अथ सर्वथैकान्तवस्तुनः कार्यकारित्वं प्रतिरुणद्धि
एतं पुणु द क ण करेदि लेस- मेचं पि ।
जं पुणेण तहत कर्ज तं बुधाति केरि क्रियाकारी है । अर्थ- जो वस्तु अनेकान्तरूप हैं वही नियमसे कार्यकारी है; क्योंकि लोकमें बहुत धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है || भावार्थ - अनेक धर्मात्मक वस्तु ही कोई कार्य कर
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दवं ।। २२६ ॥
सकती है । इसीसे पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणका प्रथम सूत्र जो बतलाता है किसी भी कार्यकी सिद्धि अनेकान्तसे ही हो सकती है। वस्तुको नित्य अथवा क्षणिक ही मानते हैं उनके मतमें अर्थक्रिया नहीं बनती। ही प्रकार हैं एक क्रमसे और एक एकसाथ । निव्यवस्तु क्रमसे काम नहीं कर सकती; क्योंकि सब कायको एक साथ उत्पन्न करनेकी उसमें सामर्थ्य है। यदि कहा जाये कि सहायकोंके मिलने पर निक्ष्य पदार्थ कार्य करता है और सहायकों के अभाव में कार्य नहीं करता । तो इसका यह मतलब हुआ कि पहले वह नित्यपदार्थ कार्य करनेमें असमर्थ था, पीछे सहकारियोंके मिलनेपर समर्थ हुआ । तो असमर्थ स्वभावको छोड़कर समर्थ स्वभावको ग्रहण करनेके कारण वह सर्वथा नित्य नहीं रहा । सर्वथा निक्ष्य तो वही हो सकता है जिसमें कुछ भी परिवर्तन न हो। यदि वह नित्य पदार्थ एक साथ सब काम कर लेता है तो प्रथम समयमें ही सबकाम करलेनेसे दूसरे समयमें उसके करनेको कुछ भी काम शेष न रहेगा । और ऐसी अवस्था में वह असत् हो जायेगा; क्यों कि सत् वही हैं जो सदा कुछ न कुछ किया करता है । अतः क्रमसे और एक साथ काम न कर सकनेसे नित्यवस्तुमें अर्थक्रिया नहीं बनती । इसी तरह जो वस्तुको पर्यायकी तरह सर्वथा क्षणिक मानते हैं उनके मतमें मी अर्थक्रिया नहीं बनती। क्योंकि क्षणिक वस्तु क्रमसे तो कार्य कर नहीं सकती; क्योंकि क्षणिक तो एक क्षणवर्ती होता है, अतः वहाँ कम न ही कैसे सकता है? क्रमसे तो वही कार्य कर सकता है जो कुछ क्षणों तक ठहर सके | और यदि वह कुछ क्षणों तक ठहरता है तो वह क्षणिक नहीं रहता । इसी तरह क्षणिक वस्तु एक साथ भी काम नहीं कर सकती क्योंकि वैसा होनेसे कारणके रहते हुए ही कार्यकी उत्पत्ति हो जायेगी, तथा उस कार्यके कार्यकी मी उत्पत्ति उसी क्षणमें हो जायेगी। इस तरह सब गड़बड़ हो जायेगी । अतः वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना ही उचित है । तभी वस्तु अर्थक्रियाकारी बन सकती है || २२५ ॥ आगे कहते है कि सर्वथा एकान्त रूप
१ म स पुण । २ मित्तं (१) । ३ म पुण
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सिद्धिरने कान्तात्' रखा है ।
उदाहरणके लिये जो वादी
कार्य करनेके दो