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________________ १३० खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२६[छाया-एकान्तं पुनः ब्रम कार्य न करोति लेशमात्रम् अपि । यत् पुनः न करोति कार्य तत, उच्यते कीदर्श द्रव्यमा पुनः एका ग्यं जीवादिवस्त सर्वघा नित्य सर्वथा सत सर्वथा भिवं सर्वथक सर्वथानित्यमित्यादिधर्मविशिष्टं वस्तु लेशमात्रमपि [एकमपि] कार्य न करोति, तुच्छमपि प्रयोजन न विदधाति । कुतः । सदरनित्यानित्यायेकान्तेषु क्रमयोगपधाभावात् कार्यकारित्वाभावः । यत्पुनः द्रय कार्य न करोति तरकीदृशं द्रव्यमुच्यते । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यद्वस्तु क्रमेण युगपञ्च अर्थक्रिया करोति तदेव बस्तु उच्यते । यदश्चक्रियां न करोति स्वरविषाणवत्, बस्स्वेव न स्यादिति । तथा चोक्तं च । 'दुर्नयैकान्तमारूढा भाषा न स्वार्थिका हि ते । वार्षिकाच विपर्यस्ताः सकलका नया यतः । तस्कयम् । तथाहि । सर्चया एकान्तेन सद्रूपस्य न नियसार्थव्यवस्था संकरादिवोषत्वात् । तथाऽसद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात् , नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारि. स्वाभावे म्यस्याप्यभावः । भनित्यपक्षेऽपि निरन्धयत्वात् , अर्थक्रियाकारिस्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वाभावे व्यस्थापक भावः । एकखरूपस्यैकान्सेन विशेषाभावः सथैकरूपत्वात् । विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः । "निर्विशेष हि सामान्य भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाप विशेषस्तद देव हि ॥' इति झेयः । अनेकपक्षेऽपि तथा व्याभावो निराधारत्वात आधाराधेयाभावाच । भेदपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारस्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारिवाभावे द्रव्यस्थाप्यभावः। भेदपझेऽपि सर्वेषामेकत्वम् । सर्वेषामेकत्वे अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वामाबे वस्तु कार्यकारी नहीं है। अर्थ-एकान्त स्वरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता। और जो कार्य नहीं करता उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है ।। भावार्थ-यदि जीवादि वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वधा सत् या सर्वथा मिन, अथवा सर्वथा एक या सर्वथा अनिल्ल आदि एकान्त रूप हो तो वह कुछ भी कार्य नहीं कर सकती । और जो कुछ भी कार्यकारी नहीं उसे वस्तु या द्रव्य कैसे कहा जा सकता है; क्योंकि जो कुछ न कुछ कार्यकारी है वही वास्तवमें सत् है । सत् का लक्षण ही अर्थक्रिया है । अतः जो कुछ भी काम नहीं करता यह गधेके सींगकी तरह अवस्तु ही है। कहा भी है'दुर्नयके विषयभूत एकान्त रूप पदार्थ वास्तविक नहीं है। क्योंकि दुर्नय केवल खार्थिक हैं, वे अन्य नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी पुष्टि करते हैं, और जो स्वार्थिक अत एव विपरीत होते हैं वे नय सदोष होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है। यदि वस्तुको सर्वथा एकान्तसे सद्रूप माना जायेगा तो सेकर आदि दोषोंके आनेसे नियत अर्थकी व्यवस्था नहीं बनेगी । अर्थात् जब प्रत्येक वस्तु सर्वथा सत् स्वरूप मानी जायेगी तो वह सब रूप होगी । और ऐसी स्थितिमै जीच, पुद्गल आदिके भी परस्परमें एक रूप होनेसे जीव पुद्गलका भेद ही समाप्त हो जायेगा। इसी तरह जीव जीव और पुद्गल पुगलका भेद भी समाप्त हो जायेगा । तथा वस्तुको सर्वथा असदूप माननेसे समस्त संसार शून्य रूप हो जायेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा नित्य मानने से वह सदा एकरूप रहेगी । और सदा एक रूप रहनेसे वह अर्थक्रिया नहीं कर सकेगी तथा अर्थक्रिया न करनेसे वस्तुका ही अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेसे दूसरे क्षणमें ही वस्तुका सर्वथा विनाश हो जानेसे वह कोई कार्य कैसे कर सकेगी। और कुछ भी कार्य न कर सकनेसे वस्तुका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा एक रूप माननेपर उसमें विशेष धर्मका अभाव हो जायेगा क्योंकि वह सर्वथा एकरूप है । और विशेष धर्मका अभाव होनेसे सामान्य धर्मका भी अभाव हो जायेगा क्योंकि बिना विशेषका सामान्य गफेके सींगकी तरह असत् है और बिना सामान्यका विशेष भी गधेके सींगकी तरह असत् है । अर्थात् न लिना सामान्यके
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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