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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २१पर्यायात एव कालखरूप इति भावः । तयोर्क । 'अव्यावहार्ण सरिखं तियकालचस्वपजाये। विजण्पनाये वा मिलिदे ताण ठिदित्तादोषछद्रव्याणाम् अवस्थान सदृशमेव भवति । त्रिकालमवेषु सूक्ष्मायाग्गोचराचिरस्थाय्यर्थ
र्यायेषु तद्विपरीतस्थूलवारगोचरचिरस्थाय्यर्थव्य जनपर्यायेषु वा मिलितेषु तेषां स्थितत्वात् । इदमेव समर्थयति 'एयदबियम्मि जे अत्यपजया बंजणपजया चावि। तीदाणागदभूदा ताबदिय ते हवदि दवं ॥ एकस्मिन् व्ये वे अर्थपोया म्यानपर्यायावातीतानागताः अपिशन्दाद्वर्तमानाश्च सन्ति ताबद्रव्यं भवति । तयोः खरूपमाह । 'मूतों व्यसनपर्यायो वाम्गम्यो नश्वरः स्थिरः। सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायवार्थसशकः 'धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः । व्यजनार्थस्य विलेयो द्वावन्यौ जीवपुलौ ॥ ॥ २२ ॥ अथ अतीतानागतवर्तमानपर्यायाणी संख्या व्यवहरति--
तेसु अतीदा तो अणत-गुणिदा य भावि पजाया।
एको' वि वट्टमाणो एसिय-मेत्तो' वि सो कालों ॥२२१॥ [छाया-तेषु अतीताः अनन्ताः अनन्तगुणिताः च भाविपर्यायाः। एकः मपि वर्तमानः एतावन्मात्रः अपि स कालः ॥] वेषु जीवपुद्गलादीनाम् अतीतानागतवर्तमानपर्यायेषु मध्ये अतीताः पर्यायाः अनन्ताः, संख्यातापलिगुणितसिद्धराशिप्रमाण: ३।२१। तु पुनः, भाविपर्यायाः अनन्तगुणिताः अधीतपर्यायाद समन्तानन्तगुणाः ३१२१२। वर्तमानः पर्यायः एकोऽपि एकसमयमात्रः । तत्कालपर्यायानान्तबस्तुभावोऽभिधीयते इति पचनातू । अपि पुनः, स कालः स वर्तमानकालः एतावन्मात्रः समयमान इत्यर्थः । अतीतानागतवर्तमानकालरूपः कथितः । तथा गोम्मटसारोकं सदस्यते 'ववहारो पुण कालो माणुसखेसम्हि जाणिग्यो दु। जोइसियाणं चारे वहारो समाणो ति ॥ म्यवहार
शमें स्थित परमाणु मन्दगतिसे चलकर उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर जितनी देरमें पहुँचता है उतने कालका नाम समय है । व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब शब्द एकार्थक हैं अतः व्यवहार या पर्यायके ठहरनेको व्यवहार काल कहते हैं । समय, आवली, उच्छास, स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, ये सब व्यवहारकाल हैं । असंख्यात समयकी एक श्रावली होती है । संख्यात आवलीके समूहको उच्छास कहते हैं। सात उच्छासका एक स्तोक होता है और सात स्तोकका एक लव होता है । साड़े अडतीस लवकी एक नाली होती है । दो नाली अथवा पडीका एक मुहूर्त होता है | और एक समय कम मुहूर्तको भिन्न मुहूर्त कहते हैं । यही उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । तीस मुहूर्तका एक दिनरात होता है। पन्द्रह दिनरातका एक पक्ष होता है । दो पक्षका एक भास होता है और दो मासकी एक ऋतु होती है । तीन ऋतुका एक अयन होता है । दो अयनका एक वर्ष होता है । यह सब व्यवहारकाल है । यह व्यवहारकाल प्रकटरूपसे मनुष्यलोकमें ही व्यक्त होता है क्योंकि मनुष्यलोकमें ज्योतिषी देवोंके चलनेके कारण दिन रात आदिका व्यवहार पाया जाता है ॥ २२० ।। आगे, अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंकी संख्या कहते हैं । अर्थ-द्रव्योंकी उन पर्यायोंमें से अतीत पर्याय अनन्त हैं, अनागत पर्याय उनसे अनन्तगुनी हैं और वर्तमान पर्याय एक ही है। सो जितनी पर्याय हैं उतना ही व्यवहारकाल है॥ भावार्थ-द्रव्योंकी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंकी संख्या इस प्रकार है--अतीत पर्याय अनन्त हैं | अर्थात् सिद्धराशिको संख्यात आवलिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है उतनी ही एक द्रव्यकी अतीत पर्याय होती हैं। भावि पर्याय अतीत पर्यायोंसे मी अनन्तगुनी होती हैं और वर्तमान पर्याय एक ही होती है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें व्यवहार कालके तीन भेद बतलाये हैं-अतीत, अनागत और वर्तमान।
प.अवीदाश्ता ! २ म गएको। ३ग मितो। ४ - म्यचतुष्कनिरूपणं। पुम्न प्रत्यादि ।