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________________ -२७७] १०. लोकानुप्रेक्षा उपप्रहव्यभिचारो, यथा धा गतिनिवृत्ती परस्मैपदोपग्रहः तंत्र संतिष्ठते अवतिष्ठते प्रतिष्ठते । एवंविधं व्यवहारनयं व्यभिचारलक्षणं न्यायरहित कश्चित्पुमान, मन्यते । कस्मादन्यार्थ मन्यते । अन्यार्थस्य अन्यार्थेन वर्तनेन संबन्धाभाषात् । तत्र शब्दनयापेक्षया दोषो नास्ति, ताई लोकसमये विरोधो भविष्यति, भवतु नाम विरोधः, तत्व परीक्षते, किं तेन विरोधेन भविष्यति । किमाषधं रोगीच्छानुवर्ति वर्तते इति ॥ २५५॥ अथ समभिरूदनयं प्रकाशयति जो एगेगं अत्थं परिणदि-भेदेण साहदेणाण । मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णर्य जाण ॥ २७६ ।। [छाया-यः एकैकम् अर्थ परिणविमेदेन कथयति ज्ञानम् । मुख्यार्थ या भाषते अभिष्टं तं नये आनीहि ॥] सं जगत्प्रसिद्धम् अभिरूढं नयं समभिरुनाख्यं नवं जानीहि विति । परस्परेण अभिरूढः यः समभिरूढः शब्दनयमेदः । अर्थ पदार्थ वस्तु एकै परिणतिभेदेन परिणमनगमनोवेशनजयादिपर्यायमेदेन प्रकारेण साधयति प्रकाशयति गृहाति वा, अथवा मुख्या प्रधानार्थ ज्ञान बोधं भाषते वति, यथा गच्छतीति गौः, गमनखभावः पुषादिकेष्वप्यस्ति तथापि समभिरूढनयमलेन धेनौ प्रसिद्धः । तथाहि । एकमप्यर्थ शब्दभेदेन भिर जानाति यः समभिरूडो नयः । यथा एकोऽपि पुलोमजाप्राणवल्लभः परमैश्रीयुक्तः इन्द्रः सत्यते सः अन्यः शकतात, शकः सोऽप्यन्यः, पुरदारणात् पुरंदरः सोऽप्यन्य इस्यादिशब्दमेदादेकस्याप्यर्थस्य सरकत्वं मन्यते तत् समभिरूटस्य लक्षणम् ॥ २७६ ॥ अथ एवंभूतनये प्ररूपयति जेण सहारेण जदा परिणद-रूवम्मि तम्मयत्तादो। तं परिणाम साहदि जो वि गओ सो हु परमस्थो ॥ २७७ ॥ प्रकारके व्यभिचारको 'अन्याय्य' मानता है । क्यों कि वैयाकरण लोग शब्दमें परिवर्तनके साथ अर्थमें परिवर्तन नहीं मानते। यदि वाचक में परिवर्तन के साथ उसके वाच्य अर्थमेंमी परिवर्तन मान लिया जाता है तो व्यभिचारका प्रसंग नहीं रहता अतः शब्दनय शब्दमें लिंगकारक आदिका भेद होनेसे उसके वाच्य अर्थमेभी भेद खोकार करता है । शायद कहा जाये कि शब्द नय प्रचलित व्याकरणके नियमोंका विरोधी है इसलिये विरोध उपस्थित होगा। इसका उत्तर यह है कि विरोध उपस्थित होता है तो होओ। तत्त्वकी परीक्षा करते समय इस बातका विचार नहीं किया जाता । क्या चिकित्सक बीमारकी रुचिके अनुसार औषधि देता है ? ॥ २७५ ॥ आगे समभिरूद नयका स्वरूप बतलाते हैअर्थ-जो नय प्रत्येक अर्थको परिणामके भेदसे भेदरूप ग्रहण करता है, अथवा एक शब्दके नाना अोंमेंसे मुख्य अर्थको ही कहता है वह सममिरूद नय है ॥ भावार्थ-शब्दनय शब्दभेदसे वस्तुको भेदरूप ग्रहण नहीं करता । किन्तु समभिरूद्ध नय शब्दमेदसे वस्तुको भेदरूप ग्रहण करता है । जैसे खर्ग लोकके खामीको इन्द्र, शक, पुरन्दर कहते हैं । अतः यह नय खर्गके खामीको तीन भेदरूप भानता है । अर्थात् वह आनन्द करता है इस लिये इन्द्र है । शक्तिशाली होनेसे शक है और नगरोंको उजाड़नेवाला होनेसे पुरन्दर है । इस तरह यह नय शब्दमेदसे अर्थको मेदरूप ग्रहण करता है, अथवा एक शब्दके नाना अर्थोंमेंसे. जो रूढ अर्थको प्रहण करता है वह समभिरूद्ध नय है । जैसे गौ शब्दके बद्भुतसे अर्थ हैं । किन्तु यह नय उसका रूढ अर्थ गाय ही लेता है, अन्य नहीं ॥ २७६ ॥ अब एवंभूत नयका खरूप कहते हैं । अर्थ-वस्तु जिस समय जिस स्वभावरूप परिणत होती है उस समय वह उसी खभावमय होती है । अतः उसी परिणामरूप वस्तुको ग्रहण करनेवाला नय एवंभूत - - - गपरिणद.२लमग मेण (सनेयेग) साप। हातनयं तम्परिणाम,मत प्परिणाम लग परिणदि। ५ सग
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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