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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [मा० २७५सधेसि क्त्यूण संखा-लिंगादि-बहु-पयारेहिं । । जो साहदि णाणसं सह-णयं तं 'बियाणेह ॥ २७ ॥ [छाया-सर्वेषां धस्तूनां संस्यालिङ्गादियहुप्रकारैः । यः कथयति नानात्वं शब्दनय तं विमानीहि ।। यः शन्दनयः संख्यालिझांदिबहुप्रकारैः एकद्विबहुवचनपुंस्त्रीनपुंसकलिसाशनेकविधेः कृत्वा सर्वेषां पस्सूना सालाना पदार्थानां जीवपुद्गलादीनां गाणसं ज्ञानत्वं ज्ञातृवं नानास्वम् भनेकप्रकारत्वं वा साधयति साध्य करोति तं शब्दनयनामानं नयं जानीहि त्वं विद्धि । तयथा । शब्दात व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धशब्दः शब्दनयः, लिसंख्यासाधनाकीना व्यभिचारस्य निषेधपरः, लिजादीनां व्यभिचारे दोषो नास्तीस्यभिप्रायपरः शब्दनयः उच्यते। लिहव्यभिचारो, यथा पुष्यः नक्षत्रं तारका चेति । संख्याव्यभिचारी, यथा मापा तोय वोः श्रतः दाराः कलत्रम् आम्रा वनं वारणा नगरम् । साधनध्यभिचारः कारफध्यभिचारो, यथा सेना पर्वतमधिक्सति पर्वते तिष्ठतीत्यर्थः । उत्तमादिपुरुषव्यभिचारः, यथा एहि मन्ये रथेन यास्यसि न यास्यसि यातस्ते पिता इति । अस्यायमर्थः । एहि त्वमागच्छ, त्वमेवं मन्यसे अई रथेन यास्यामि । एतावता वं रथेन न यास्यसि । ते तब पिता अमे रथेन यातः, म यात इत्यर्थः । अत्र मध्यमपुरुषस्थाने उत्तमपुरुषः उत्तमपुरुषस्थाने मध्यमपुरुषः। तदर्थ सूत्रमिदम् । 'प्रहासे मम्योपपदे मन्यतेरुतमैकवचनं च। उत्तमे मध्यमस्य । काल. व्यभिचारों, यथा विश्वश्वा अस्य पुत्रो अनिता भविष्यत्कार्यमासीदिति । अत्र भविष्यस्का अतीतकालविभक्तिः। अर्थको विषय करते हैं ॥ २७४ ॥ आगे शब्दनयका खरूप कहते हैं । अर्थ-जो नय सब वस्तुओंको संख्या लिंग आदि भेदोंकी अपेक्षासे मेदरूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है ।। भावार्थ-संख्यासे एकवचन, द्विवचन और बहुवचन लेना चाहिये । लिंगसे स्त्री, पुरुष और नपुंसकलिंग लेना चाहिये । और आदि शब्दसे काल, कारक, पुरुष, उपसर्ग वगैरह लेना चाहिये । इनके भेदसे जो सब वस्तुओंको भेद रूप ग्रहण करता है वह शब्दनय है । वैयाकरणोंके मतके अनुसार एकवचनके स्थानमें बहुवचनका, स्त्रीलिंग शब्दके बदलेमें पुल्लिंग शब्दका, एक कारकके स्थान दूसरे कारकका, उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका तया भविष्यकालमें अतीत कालका प्रयोग किया जाता है । ये महाशय शब्दों में लिंग वचन आदिका मेद होनेपरमी उनके वाध्य अर्थोंमें कोई भेद नहीं मानते । इसलिये वैयाकरणोंका यह मत व्यभिचार कहलाता है । जैसे, एक ही तारेको पुष्य, नक्षत्र और तारका इन तीन लिंगवाले तीन शब्दोंसे कहना लिंगव्यभिचार है। एक ही वस्तुको भिन्न वचनवाले शब्दोंसे कहना संख्याव्यभिचार है। जैसे पानीको आपः (बहुवचन) कहना और जल (एकवचन) कहना । 'सेना पर्वतपर रहती है' के स्थानमें सेना पर्वतको रहती हैं कहना कारकम्यभिचार है (संस्कृत व्याकरणके अनुसार यहाँ सप्तमीके स्थान में द्वितीया विभक्ति होती है)। संस्कृत व्याकरणके अनुसार हंसी मजाक उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका और मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुषका प्रयोग होता है यह पुरुषव्यभिचार है । 'उसके ऐसा पुत्र पैदा होगा जो विश्वको देख चुका है यह काल व्यभिचार है क्यों कि भविष्यत् कालमें अतीतकालकी विभक्तिका प्रयोग है । इसी तरह संस्कृत व्याकरणके अनुसार धातुके पहले उपसर्ग लगनेसे उसका पद बदल जाता है । जैसे ठहरनेके अर्थमें 'स्था' धातु परस्मैपद है किन्तु उसके पहले उपसर्ग लगनेसे वह आत्मनेपद हो जाती है। यह उपग्रहव्यभिचार है । शन्दनय इस १५ बियाणेहि ()
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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