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________________ १९७ -२७४] १०. लोकानुप्रेक्षा जो वट्टमाण-काले 'अस्थ-पज्जाय-परिणदं अस्थं । संतं साहदि सवं तं पि णय 'उजुयं जाण ॥ २७४ ॥ [छाया-यः वर्तमानकाले अर्थपर्यायपरिणतम् अर्थम् । सन्त कथयति सर्व तम् अपि नयम् ऋजुक जानीहि ।। तमपि नयम् ऋजुसूत्रनयं जानीहि । ऋजु सरलम् अर्थपर्यायं सत्रयति साधयति तन्त्रप्रति निश्चय करोवीति अजुसूत्रः पचासौ नयः तम् जसवनयं त्वं जानीहि विदिशतकम् । यः ऋजसत्रनयः वर्तमानकाळे प्रवर्तमानसमये एकस्मिन् समयलक्षणे सन्त वर्वमानं विद्यमानं वा अर्थ बीवाविपदार्थ वस्तु साधयति सूत्रयति निक्षयीकरोति गृण्डातीति यावत् । कीरक्षम् अर्थपर्यायपरिणतम् । अर्थपर्यायः सूक्ष्मप्रतिक्षणसी उत्पादध्ययलक्षणः । 'सूक्ष्मप्रतिक्षणध्वंसी पर्यायवार्य: संशका इति वचनात् । तत्र परिणतः तस्पोयं प्राप्तः, तम् अर्थपर्यायपरिगतं सूक्ष्मप्रतिक्षणपर्यायपरिणतम् म साधयति । सूक्ष्मऋजुसूत्रनमः, यथा एकसमयापस्थायी पर्यायः । स्थूलसूत्रः, यथा मनुष्यादिपर्यायास्तदावाप्रमाणकाल तितीति जुसूत्रोऽपि देथा। तपाहि । अतीतस्य विनष्टत्वे अनागतस्यासेजातले व्यवहारस्याभावात् समानसमयमात्रविषयपर्यायमानप्राही ऋजुसूत्रनयः । नन्वेचे सति संव्यवहारलोप: स्यात् सत्यम् । अस्प अजुसूत्रस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शन विधीयते । लोकसंव्यवहारस्तु सर्वनयसमूहचाध्यो भवति । तेन ऋजुसूत्राश्रयेण संन्यबहारलोपो न भवति । यथा कश्चिम्मृतः, तं दृष्ट्रा संसारोऽयं अनित्य इति कविपीति, न च सर्वसंसारोऽनित्यो वर्तते इति । एते नेगमपहव्यवहारबाजुसूचनयाचस्वारः अर्थनयाः, अन्ये वक्ष्यमाणाखायो नयाः शन्दनया इति ॥ २४॥ मय सन्दन समीकसे विशेष संग्रहका भेदक व्यवहारनय जैसे जीवके दो भेद है-संसारी और मुक्त ॥ २७३ ॥ अब ऋजुसूत्र नयका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-वर्तमान कालमें अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्यको जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्र नय है । भावार्थ-ऋजुसूत्र नय वर्तमान समयवर्ती पर्यायको ही ग्रहण करता है । इसका कहना है कि वस्तुकी अतीत पर्याय तो नष्ट हो चुकी और अनागत पर्याय अमी है ही नहीं । इसलिये न अतीत पर्यायसे काम चलता है और न भावि पर्यायसे काम चलता है । काम तो वर्तमान पर्यायसे ही चलता है । अतः यह नय वर्तमान पर्याय मात्रको ही ग्रहण करता है । शायद कोई कहे कि इस तरहसे तो सब व्यवहारका लोप होजायेगा; क्योंकि जिसे हमने कर्ज दिया था वह तो अतीत हो चुका । अब हम रुपया किससे लेंगे। किन्तु बात ऐसी नहीं है । लोक व्यवहार सब नयोंसे चलता है एक ही नयको पकड़कर बैठ जानेसे लोक व्यवहार नहीं चल सकता । जैसे कोई मरा, उसे देखकर किसीने कहा कि संसार अनित्य है । तो इसका यह मतलब नहीं है कि सारा संसार कुछ दिनोंमें समाप्त हो जायेगा, इसी तरह यहाँ मी समझना चाहिये । अस्तु, वस्तु प्रतिसमय परिणमन करती है । सो एकसमयवर्ती वर्तमान पर्यायको अर्पपर्याय कहते हैं क्योंकि शाखमें प्रतिसमय नष्ट होनेवाली सूक्ष्म पर्यायको अर्थपर्याय कहा है । उस सूक्ष्म क्षणवर्ती वर्तमान अर्थपर्यायसहित वस्तु सूक्ष्मऋजुसूत्र नयका विषय है। ऋजुसूत्र नयके भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र । ग्रन्थकारने उक्त गाथामें सूक्ष्मऋजुसूत्र नयका ही स्वरूप बतलाया है | जो स्थूल पर्यायको विषय करता है वह स्थूल ऋजुसूत्र नय है | जैसे मोटे तौरसे मनुष्य आदि पर्याय आयुपर्यन्त रहती हैं । अतः उसको ग्रहण करनेवाला नय स्थूल ऋजुसूत्र है । ये नैगम, संग्रह, व्यवहार और जुसूत्र नय अर्थनय हैं, और आगे कहे जानेवाले शेष तीन नय शन्दनय हैं, क्यों कि वे शब्दकी प्रधानतासे १ [अत्यं पञ्चाय] 1 २ ल ग त वि णय रुजणय । ३ म रुजुणयं, सरिजुणयं (१)।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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