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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २७३गच्छति तान् पर्यायान् इति द्रव्यम् । जीवाजीवतद्भेदप्रभेदामा संग्रहो भवति । एवं घर इत्युके पटवुमिधानानुगमलिहानुमिततकलार्थसंप्रदो भवति। अभेदरूपतया वस्तुसमूह जातं संगृहातीति संग्रहः सामान्यसंग्रहः । यथा सर्वाधि द्रष्याणि परस्परम् अपिरोधीनि विशेषसंग्रहः, यथा सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः॥२७॥अथ व्यवहारमय निरूपयति 'जं संगहेण गहिद' विसेस-रहिदं पि भेददे सददं। परमाणू-पजते ववहार-णओ हवे सो हु ॥ २७३ ॥ [छाया-यत् संप्रहेण गृहीतं विशेषरहितम् अपि भेदयति सततम् । परमाणुपर्यन्तं व्यवहारनयः भवेत् स खलु॥ अपि पुनः स व्यवहारनयो भवति । स कः। यत्संग्रहनयेन गृहीतं वस्तु । किंभूतम् । विशेषसहितम् अपि निर्विशेष निरपेक्ष सामान्य महास्करगणात् परमायुपर्यन्तं परमाणुवर्गणापयन्तमयसानं सततं निरन्तर भेददेभेवयति भिनं भि गृहाती त्यर्थः । तथाहि संग्रहेण गृहीतस्यार्थस्य भेदतया वस्तु व्यवहियतेऽनेन व्यवहारः क्रियते व्यवहरणं षा व्यवहारः। संग्रहनयविषयीकृतामा संग्रहनयगृहीतानो पदार्थानां वस्तूनां विधिपूर्वकम् अवहरणं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः। कोऽसी विधिः। संग्रह नयेन गृहीतोऽर्थः स विधिः कथ्यते । संग्रहपूर्वेणैव व्यवहारः प्रवर्तते । तथाहि । सर्वसंप्रहेण यद्वस्तु गृहीतं तहसु विशेष नापेक्षते, तेन कारणेन तद्वस्तु व्यवहाराय समर्थ न भवति । इति कारणात् व्यवहारनयः समाश्रीयते । यत् सत् वर्तते तरिक द्रष्यं गुणो बा, गहन्यं तज्जीवोऽजीयो का इति संव्यवहारो न कर्तुं शक्यः । जीवद्रष्यमित्युके मजीवद्रव्यमिति चोक्के व्यवहारे आश्रिते ते अपि द्वे द्रव्ये संग्रहगृहीते संव्यवहाराय म समर्थ भक्तः। तदर्थ देवनारका दिव्यवहार आश्रीयते । घटादिश्च व्यवहारेण आश्रीयते । एवं व्यवद्दारनयः तावत्पर्यन्त प्रवर्सते यावत्पुनर्विभागो न भवति । तथाहि । सामान्यसंप्रहभेदग्यवहारः, यथा द्रव्याणि जीवाजीवाः ।। विशेषसंप्रभेदकम्यवहार, यथा जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च । २ । इति व्यवहारो देधा ॥ २५ ॥ अथ सूत्रनय सूचयति मात्रका संग्रह कहनेवाला नय संग्रहनय है । किन्तु वह संग्रह विरोध रहित होना चाहिये-यानी घट कहनेसे पटका संग्रह नहीं कर लेना चाहिये, किन्तु घटके ही भेद प्रभेदोंका संग्रह होना चाहिये । संग्रहके दो भेद हैं, एक सामान्य संग्रह, जैसे सत् अथवा द्रव्य | और एक विशेष संग्रह, जैसे जीव या अजीव ॥ २७२ ।। अब व्यवहार नयका स्वरूप कहते हैं। अर्थ-जो नय संग्रहनयके द्वारा अमेदरूपसे गृहीत वस्तुओंका परमाणुपर्यन्त भेद करता है वह व्यवहारनय है ।। भावार्थ-संग्रहनपके द्वारा संग्रहीत वस्तुओंका विधिपूर्वक भेद करके कथन करनेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहार का मतलब ही व्यवहरण-यानी मेद करना है । किन्तु वह भेद विधिपूर्वक होना चाहिये । अर्थात् जिस क्रमसे संग्रह किया गया हो उसी क्रमसे भेद करना चाहिये । आशय यह है कि केवल संग्रह नयसे लोकका व्यवहार नहीं चल सकता । जैसे 'सत्' कहनेसे विवक्षित किसी एक वस्तुका ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि सत् द्रव्य भी है और गुण भी है। इसी तरह केवल द्रव्य कहनेसे भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि द्रव्य जीव भी है और अजीव भी है । जीव द्रव्य अथवा अजीव द्रव्य कहनेसे भी व्यवहार नहीं चलता । अतः व्यबहारके लिये जीवद्रव्यके नर नारकादि भेदोंका और अजीवद्रव्यके घट पट आदि भेदोंका आश्रय लेना पड़ता है । इस तरह यह व्यवहारनय तब तक भेद करता चला जाता है जब तक भेद करनेको स्थान रहता है | संग्रह नयकी तरह व्यवहार नयके मी दो भेद हैंएक सामान्य संग्रहका भेदक व्यवहारनय, जैसे द्रव्यके दो भेद हैं जीव और अजीव । और एक १५जो (1)। गहिदो (१)। ३ ल समग भने सो वि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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