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________________ २०० खामिकालियानुप्रेक्षा [गा० २०८[छाया-येन खभावेन यदा परिणतरूपे तन्मयत्वात् । तं परिणाम कथयति यः अपि नयः स खलु परमा।।1 सोऽपि नयः एवंभूतः परमार्थतः सत्यरूपो शेयः, यः परमार्थः एवंभूतनयः यदा यस्मिन् क्षणे परिणतरूपे वस्तुनि पदा परिणतरति पर्यायसंयुक्त अर्थे येन खभावेन शकनपुरदारणेन्दनादिस्वभावेन तत्परिणाम शकपुरंदरेन्द्रादिपर्यायम् एकस्मिनेष क्षणे साधयति प्रकाशयति । कुतः लग्मयत्वात्, सत् शकपुरंदरेन्द्रादिपर्यायमयत्वात् । अथवा तन्मात्रत्वात् पाळ, पाकशासनस्य जम्बूद्वीपादिपरिवर्तनसामोदिपुरदारणपरमैश्वर्यादिपर्यायमानत्वात् । तदुकं नयचके शब्दमेदे अर्थभेदोऽप्यस्ति । यथा शकः पुरंदरः इन्द्रः इति । तथाहि । यस्मिन्मेककाळे शक्नोति जम्बूद्वीपपरावर्तने समर्थो भवतीति शकः । अन्यदा यस्मिभेव काळे ऐश्वर्थ प्राप्नोति तदेवेन्द्र उच्यते, न चाभिषेककाले न पूजनकाले इन्द उच्यते। यस्मिन्नेव काले गममपरिणतो भवति तदेव गौरुध्यते न स्थितिकाले म शयनकाले । अथवा इन्द्रज्ञानपरिणतः आत्मा इन्द्र उच्यते। अभिज्ञानपरिणतः आस्मा अनिश्चेति, एवंभूतनयलक्षणम् ॥ २७ ॥ अथ नयानाम् उपसंहार ध्यनक्ति एवं विविह-णएहिं जो वत्थु क्वहरेदि लोयम्मि। दसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-भोक्खं च ॥ २७८ ॥ [छाया-एवं विविधनयः यः वस्तु व्यवहरति लोके । दर्शनशानचरित्रं स साधपति वर्गमोक्ष च॥] एवं पूर्वासाप्रकारेण लोफे जगति यः पुमान वस्तु जीपपुलधर्मादिपदार्थ व्यवहरति व्यवहारविषयीकरोति । मेदोपचारतया वस्तु व्यवलियते भेदेन व्यवहरणं करोति । कैः। विविध नयैः नानाप्रकारनयैः, नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुवर्षभूतनयः द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यो निश्चयव्यवहारनयाभ्याम् उपनयेच जीवादिवस्तु व्यबहरति यः स पुशन् दर्शनशानचारि दर्शनं सम्यग्दर्शनं सभ्यतवं शान सभ्यरज्ञानं बोधः चारित्रं प्रयोदशधा, सामायिकच्छेदोपस्थापनादिरूप पञ्चधा वा, समाहारद्वन्समासः व्यवहारनिश्चय सम्यग्दर्शनझामचारित्रं रत्नत्रयं साधयति स्वविषयीकरोति यः, च पुनः सर्गमोक्षा स्वर्गः सौधर्मादिकरुपः मोक्ष: असकर्मविप्रमुक्तः सिद्धपर्यायः सौदोस साधयति प्रानोति ॥२७॥ अथ सत्त्वधवगमनमभावनाधारणादिकर्तारः नरा: दुर्लभा इत्यावेदयति है। यह एवंभूत नय परमार्यरूप है । भावार्थ-जो वस्तु जिस समय जिस पर्याय रूप परिणत हो उस समय उसी रूपसे उसे ग्रहण करनेवाला नय एवंभूत है । जैसे स्वर्गका स्वामी जिस समय भानन्द करता हो उसी समय इन्द्र है, जिस समय यह सामर्थ्यशाली है उसी समय शक है और जिस समय वह नगरोंको उजाड़ रहा है उसी समय पुरन्दर है, यदि वह भगवानका अभिषेक या पूजन कर रहा है तो उसे इन्द्र वगैरह नहीं कह सकते । इसी तरह 'गौ' का अर्थ है जो चलनेवाली हो। तो जब गाय चलती हो तमी वह गौ है, बैठी हुई हो या सोती हो तो उसे गौ नहीं कहना चाहिये । अथवा जिस समय जो आत्मा जिस ज्ञान रूप परिणत है उस समय उसे उसी रूपसे ग्रहण करना एवंभूत नय है । जैसे, इन्द्रको जाननेवाला आत्मा इन्द्र है और अग्निको जाननेवाला आत्मा अग्नि है। इसीसे इस नयको परमार्थ नय कहा है; क्यों कि यह यथार्थ वस्तु खरूपका ग्राहक है ॥ २७७ ॥ अब नोंका उपसंहार करते हैं । अर्थ-इस प्रकार जो पुरुष नयोंके द्वारा लोकमें वस्तुका व्यवहार करता है वह पुरुष सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको और स्वर्ग मोक्षको साधता है। भावार्थ उक्त प्रकारसे द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक और उनके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद, एवंभूत नयोंसे तथा निश्चयनय और व्यवहार नयसे वस्तुतत्वको जानकर जो वस्तुका व्यवहार करता है, उसे ठीक रूपसे जानता तथा कहता है वहीं रखत्रयको तथा वर्ग मोक्षको प्राप्त करता है १ स ग लोयमि।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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