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________________ २.र -२८०] १०. लोकानुप्रेक्षा विरला णिसुणहि तच्च विरला जाणति तच्चदो तथं । विरला भावहि तचं विरलाणं धारणा होदि ॥ २७९ ॥ छाया-विरला: निभृण्वन्ति तत्त्वं विराः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वम् । विरलाः भावयन्ति ताच विरलाना धारण भवति ॥] बिरताः खल्पा केषन तस्ववेतारः सावधानाः सन्तःपुरुक्षः तरपे कोषावितरपखरूपम् बातेशयेन शृष्यन्ति समाकर्णयन्ति । पुनः तत्त्वतः परमार्थतः परमार्यमुध्या कर्मक्षयबुध्द्या वा बिरलाः खल्पसराः सम्पग्बोषमयान्तःकरणाः केचन नराः तत्त्वं जीवादिपदार्थखरूपं जानन्ति विदन्ति । पूर्व तत्वखरूप श्रुरवा पवात् तज्जानन्तीत्यर्थः । पुनः बिरलाः खल्पतराणा मध्ये खल्पतरा: तुच्छा पत्रमा सम्यग्दृपया तस्वं जीवादिखरूप भावरन्ति भावनाविषयीकर्षन्ति संतत्यपरतवं श्रुत्वा ज्ञात्वा च पुद्गलादिक त्यत्तदा खस्वरूप शुद्धस्वरूप खतत्त्वम् मईदादिपरतव का ध्यायन्ति चिन्तयन्तीत्यर्थः । उतंत्र। श्लोक ॥ विद्यन्ते कति नास्मयोधविमुखाः संवेहिनो देहिनः, प्राप्यन्ते कतिचित् कदाचन पुजिज्ञासमानाः कचित् । श्रात्ममाः परमप्रमोदसुखिनः प्रोन्मीलदन्तर्दशो, द्वित्राः स्युहको यदि त्रिचतुराले पञ्चषा दुर्लमाः ।। इति रिलानां सम्यग्भावितचित्तानो केषांचित्पुसा धारणा जीवादितत्वधारणा कालान्तरेगाविस्मरण भवति ॥ १७ ॥ अथ तस्वानां कयनेन ग्रहणादिना च तत्त्वज्ञातृत्व शापयति तञ्च कहिज्जमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो हि। तं चिय भावेदि' सया सो वि य तचं वियाणेई ।। २८०॥ ॥ २७८ ॥ आगे कहते हैं कि तत्वोंको सुनने, जानने, अवधारण करने और मनन करनेवाले मनुष्य दुर्लभ हैं । अर्थ-जगतमै विरले मनुष्य ही तत्त्वको सुनते हैं । सुननेवालोंमेंसे मी विरले मनुष्य ही तत्त्वको ठीक ठीक जानते हैं । जाननेवालोंमेसे मी विरले मनुष्य ही तत्वकी भावना सतत अम्यास करते हैं। और सतत अभ्यास करनेवालोंमेंसे मी तस्वकी धारणा विरले मनुष्यों को ही होती है | भावार्थ-संसारमें राग रंग और काम भोगकी बातें सुननेवाले बहुत हैं, किन्तु तस्वकी बात सुननेवाले बहुत कम है। राग रंगकी बातें सुननेके लिये मनुष्य पैसा खर्च करता है किन्तु तत्त्वकी बात मुफ्त मी सुनना पसन्द नहीं करता । यदि कुछ लोग भूले भटके या पुराने संस्कारवश तत्वचर्चा सुनने या भी जाते हैं तो उनमेंसे अधिकांशको नींद आने लगती है, कुछ समझते नहीं है। अतः सुननेनालों से भी कुछ ही लोग तत्वको समझ पाते हैं । जो समझते हैं वे भी अपनी गृहस्थीके मोहजालके कारण दिनभर दुनियादारीमें फंसे रहते हैं । अतः उनमेंसे भी कुछ ही लोग तत्वचर्चासे उठकर उसका चिन्तन-मनन करते हैं । चिन्तन मनन करनेवालोंमेंसे भी तत्वको धारणा कुछको ही होती है । अतः तखको सुननेवाले, सुनकर समझनेवाले, समझकर अभ्यास करनेवाले और अभ्यास करके भी उसे समरण रखनेवाले मनुष्य उत्तरोत्तर दुर्लभ होते हैं। कहा भी है-'आत्म हानसे विमुख और सन्देहमें पड़े हुए प्राणी बहुत हैं । जिनको आत्माके विषयमें जिज्ञासा है ऐसे प्राणी कचित् कदाचित् ही मिलते हैं, किन्तु जोआस्मिक प्रमोदसे सुखी हैं तथा जिनकी अन्तर्दृष्टि स्कुली है ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष दो तीन अथवा बहुत हुए तो तीन चार ही होते हैं, किन्तु पाँचका होना दुर्लभ है। ॥ २७९ ! आगे कहते हैं कि तत्त्वको कौन जानता है । अर्थ-जो पुरुष गुरुओंके द्वारा लग गिसणदि। रस धारण। कार्तिके.२६ गत से भाचेह। ४ बियाणेह (= दि)।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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