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२०२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २८१-. [छाया-तवं कथ्यमानं निश्चलभावेन शाति यः हि। तत् एव भावयति सदा सः अपि च तत्त्वं विजानाति ॥] हि यस्मात् कारणात् स्फुटदा । यो मध्यजीवः निश्चलभावेग दृहपरिणामेन कथ्यमान गुर्षादिना प्रकाश्यमानं तस्वं जीवाविवस्तुस्वरूपं गृह्णाति श्रद्धाविषयीकरोति तदेव तत्त्वं सदा सर्वकाले भावयति अनुभवविषयीकरोति खतरवं शुद्धबोधकसरूम परमानन्दैकरूपम् भाईदादिखरूपं वा अनुभवति चिन्तयति ध्यायतीत्यर्थः। अपि च, विशेषतः प्राहकः भावुकश्च पुमान् तत्व जीवादिखरूपं जानाति सम्याज्ञान विषयीकरोति ॥ २८॥ अथ युक्त्यादीनां कः को बनो नास्त्रीत्यावेवयति
कोण वसो इस्थि-जणे करस'ण मयणेण खंडियं माणं ।
को इंदिपहिं ण जिओ को ण कसाएहि संतत्तो ॥ २८१ ॥ [छाया-कः न वशः स्त्रीजने कस्य न मदनेन खण्डिता मानः । कः इन्द्रियैः न जितः कः न कषायैः संतप्तः॥] कः संसारी जीवः कीजने वशो न स्त्रीजनस्य वशवती न जायते इति न। 'कान्ताकनकचक्रेण भ्रामितं भुवनत्रयम्' इति पचनात् । तथा च ! 'संसारम्मि हि विहिणा महिलासवेण मंद्रियं पास । जति जाणमाणा भयाणमाका विवजति ॥' इति वचनात् सर्वजनः स्त्रीणां वशवती भवतीत्यर्थः । कस्यापि संसारिणः जीवस्य मानः मदनेन कन्दर्पण न खण्डितःन दलितः न चूर्णीकृतः, अपि तु खण्डित एव । उक्तं च । 'मतेमकुम्भदलने मुवि सन्ति शूराः, केचित्प्रभृगराजवधेऽपि दक्षाः । किंतु प्रवीमि बलिना पुरतः प्रसा, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥' कः पुनः संसारी जीवः इन्द्रियैः स्पर्शरसनघ्राणचक्षुःथोत्रैः न जितः न पराभूतः अपितु जित एव, मातझमीनमधुकरपताकर झादयः स्पर्शनरसनध्राणचतु:श्रोत्रेण एकेकेन्द्रियेण पराभूताः दुःखीकृताः । तथा । 'कुरामातापतजमजमीना हताः पश्चमिरेव पच।' इति । कः पुनः संसारी जीवः कषायैः क्रोधमानमायालोभैः न मैतप्तः नरकादिषुःखतापं न नीतः, अपि । संतत एव । कहे हुए तत्त्वको निश्चल भावसे ग्रहण करता है और सदा उसीको भाता है, वही तत्वको जानता है | भावार्थ-गुरु वगैरहने जीवादि वस्तुका जो वरूप कहा है, जो भव्य जीव उसपर वृद्ध श्रद्धा रखकर सदा उसीका चिन्तन मनन करता रहता है वही अपने शुद्ध, युद्ध, परमानन्दखरूपको जानता है । बिना दृढ़ श्रद्धा और सतत भावनाके सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ २८० ।। आगे प्रश्न करते हैं कि स्त्री के वशमें कौन नहीं है ? अर्थ-इस लोकमें स्त्रीजनके वशमें कौन नहीं है! कामने किसका मान खण्डित नहीं किया ! इन्द्रियोंने किसे नहीं जीता और कषायोंसे कौन संतप्त नहीं हुआ?॥ भावार्थ-संसारमें सर्वत्र कामिनी और कंचनका साम्राज्य है । इसीसे एक कविने कहा है कि कान्ता और कंचनके चक्रने तीनों लोकोंको घुमा डाला है । अच्छे अच्छे ऋषियों और तपखियोंका मान मदन महाराजने चूर्ण कर डाला । तभी तो भर्तृहरिने कहा है संसारमें मदोन्मरा हाथियोंका गण्डस्थल विदीर्ण करनेवाले शूरवीर पाये जाते हैं। कुछ भयंकर सिंहको मारनेमें भी दक्ष हैं । किन्तु मैं बलवानोंके सामने जोर देकर कहता हूँ कि कामदेवका दर्प चूर्ण करनेवाले मनुष्य विरले हैं' । बेचारा हिरन एक कर्णेन्द्रियके वश होकर मारा जाता है, हाथी एक स्पर्शन इन्द्रियके कारण पकड़ा जाता है । पतङ्ग एक चक्षु इन्द्रियके कारण दीपक पर जल मरता है । भौंरा कमलकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर उसीमें बन्द हो जाता है । और मछली खादके लोभले मंसीमें फँस जाती है | ये बेचारे एक एक इन्द्रियके पश होकर अपनी जान खोते हैं। तब पांचों इन्द्रियोंके चारमें पड़े हुए मनुष्यकी दुर्दशाका तो कहना ही क्या है ! फिर इन्द्रियोंके साथ साथ कषायोंकी प्रबलता भी
न! २ग से।