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________________ -२८३] १०. लोकानुप्रेक्षा २०३ क्रोधेन द्वीपायनवसिष्ठादयः, मानेन कौरवादयः, मायया मस्करी पूर्णादयः, लोमैन को भदन्त श्रेष्छ्यादयश्व दुःखीकृताः ॥ २८१ ॥ अषाभ्यन्तरबाह्य परिप्रहस्य परित्यागमाहात्म्यं विशदयति सो वसो इस्थि-जणे' सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण' । जो ण य गिण्हदि गंथं अब्भंतर - बाहिरं सवं ॥ २८२ ॥ [ छाया - स न वशः स्त्रीजने स न जितः इन्द्रियैः मोहेन । यः न च गृह्णाति प्रन्थम् आभ्यन्तरबाह्यं सर्वम् ॥ ] यः ज्ञानी निःस्पृही पुमान् मन्यं, प्रश्नाति नाति कर्म वा संसारमिति ग्रन्थः तं ग्रन्थं, परिप्र सर्व चतुर्विंशतिभेदभिन्नम्, आभ्यन्तरः, 'मिथ्यात्व वेदहास्यादिषटू पाय चतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तर चतुर्दश ॥' बाल्यः दशधा 'क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । यानं शय्यासनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश ॥ तं सर्वं संग प्रत्यं परिग्रहं न गृह्णाति नाशीकरोति न स्वीकरोति स योगी ब्रीजने स्त्रीजनस्य वश्यो वशवर्ती न स्यात् । च पुनः, इन्द्रियैः स्पर्शनारीन्द्रियैः तद्विषयेव न जितः न पराभूतः न दुःखीकृतः । च पुनः मोहन मोहनीय कर्मणा मिथ्यात्वादिकषायाद्यष्टाविंशतिभेदमिनेन शरीरादौ ममत्वभावेन च न जितः न पराभूतः ॥ २८२ ॥ अथ लोकानुप्रेक्षामाहात्म्यमुद्ध व्यति एवं लोय-सहावं जो झायदि उवसमेकं सम्भावो । सो खविय कम्म-पुंजं तिलोर्य सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥ * [ छाया एवं लोकखभावं यः ध्यायति उपशमेकखद्भावः । स क्षपयित्वा कर्मपुत्रं त्रिलोकशिखामणिः भवति ॥ ] एवं स्वामिकार्तिकेय द्वादशानुप्रेक्षा मध्ये एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यः भव्यवरपुण्डरीकः पुमान् लोकखभावे लोकानुप्रेक्षां ध्यायति चिन्तयति, स भव्यपुमान् उपशमैकस्वभावः उपशमैक परिणामपरिणतः सन् शाम्यस्वस्वरूपपरमानन्दशुद्धबुकरूपपरिणतः एकत्वं गतः सन् स पुमान् क्षतिकर्मपुत्रं द्रव्यकमै भावकर्मनो कर्मसमूहं यथा भवति तथा मूलोतरोतर - कोटमें खाजका काम करती है। क्रोधसे द्वीपायन मुनिकी, मानसे कौरवोंकी, मायासे मक्खलिकी और लोभसे लोभी की जो दुर्दशा हुई वह पुराणोंमें वर्णित है । इस तरह सभी मनुष्य विषय -- कषायोंमें सिर से पैर दूबे हुए हैं । अतः ग्रन्थकार यह प्रश्न करते हैं कि आखिर इसका कारण क्या है ? क्यों चानीसे ज्ञान और बलीसे बली मनुष्य भी इस फन्देमें पड़े हैं ? क्या कोई ऐसा भी है जो इस नागपाशसे बचा है ! || २८१ ॥ आगे अन्धकार उक्त प्रश्नका समाधान करते हैं। अर्थ- जो मनुष्य बाह्य और अभ्यन्तर, समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य न तो खीजनके में होता है और न मोह तथा इन्द्रियोंके द्वारा जीता जा सकता है ॥ भावार्थ- परिग्रहको ग्रन्थ कहते हैं क्योंकि वह प्राणीको संसारसे बांधती है। उसके दो भेद हैं-- अन्तरंग और बाह्य । अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद हैं - मिध्यात्म, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, बार कषाय, राग और द्वेष । तथा बाह्य परिग्रहके दस भेद हैं- खेत, मकान, पशु, धन, धान्य, सोना, चांदी, दास, दासी, वस्त्र, वरतन वगैरह । जो मनुष्य इन परिग्रहों के चक्कर में नहीं पडा, अर्थात जो अन्दर और बाहर से निर्मन्थ है यह स्त्री, मोह, और इन्द्रियों में नहीं होता || २८२ ॥ आगे लोकानुप्रेक्षाका माहात्म्य बतलाते हैं। अर्थ-जो पुरुष उपशम परिणामरूप परिणत होकर इस प्रकार लोकके खरूपका ध्यान करता है वह कर्मपुंजको नष्ट करके उसी लोकका शिखामणि होता है ॥ भावार्थ- स्वामिकार्तिकेय मुनिके द्वारा कही गई यारह बसमेक, १ ब न २ एत्थ-जणे, स पछि जणे, ग एत्थ जग ३ व मोदेहि । ४ग गिगदि ग्रंथं अभितर म उपसमिक ६ ल म स ग तस्सेव । ७ ब इति लोकानुप्रेक्षा समाप्तः ॥ १० ॥ जीवो इलादि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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