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१०. लोकानुप्रेक्षा
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तत्संख्या गोम्मटसारोका विस्वते । प्रतारसारखचुगल निश्चतुर्थमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिप्रमिता देवा भवन्ति । ततः शुक्रमहाशुक्र वर्गबुगले निजप श्रममूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः भवन्ति । ततः लान्तवकापिष्ट वर्गयुगळे निससम भूल्न भाजित जगच्छ्रेणित्रमित देशः भवन्ति । ततः ब्रह्मोत्तरवर्गयुगळे निजनवममूलेन भजगच्छ्रेणिमात्रा देनाः स्युः । ततः सनत्कुमारमा हेन्द्र स्वर्गयुगले निजैकादशमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवा: सन्ति । ततः सोधर्मेशान स्वर्गयुग श्रेणिगुणितघन । कुलतृतीयमूलप्रमिता देवाः भवन्ति - ३ पनाकुलतृतीयमूछेन गुणितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः सौधर्मेशानजा उत्कृष्टेन भवन्तीत्यर्थः । सर्वार्थसिद्ध जाहमिन्द्राः त्रिगुणाः । तिगुणा वृत्तगुणा वा सम्बद्वा माणुसीपमाणादो ॥ १५८ ॥
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नीचे नीचे सौधर्म स्वर्ग तक प्रत्येक पटल में देव असंख्यातगुने असंख्यात गुनहैं । यहाँ गोम्मटसार में जो देवोंकी संख्या बतलाई है [ घणअंगुलपदमपदं तदियपदं सेढिसंगुणं कमलो । भवष्णो सोहम्म. दुगे देवाणं होदि परिमाणं ॥ १६९ ॥ तत्तो एगारणव सग पण चाउ नियमूल भाजिदा सेढी । पल्ला संखेज्जदिमा पत्तेयं आणदादि सुरा ॥ १६२ ||" गो० ] वह लिखते हैं- जगतश्रेणीके चौथे वर्गमूल का जगतश्रेणीमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे, उतने देव शतार और सहस्रार स्वर्गमें हैं । जगतश्रेणीके पांचवे वर्गमूलका जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने देव शुक्र और महाशुक स्वर्गमें हैं। जगतश्रेणिके सातवें वर्गमूल से जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लम्ध आवे उतने देव लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग में हैं। जगतश्रेणिके नौवे वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव ब्रह्म और मझोत्तर खर्गमें हैं। जगतश्रेणिके ग्यारहवें वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें है । और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग में घनांगुलके तीसरे वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण देवराशि है । इस तरह ऊपरके स्वर्गेसे नीचेके वर्गों मैं देवराशिका प्रमाण उत्तरोत्तर अधिक अधिक है। यह प्रमाण उत्कृष्ट है । अर्थात् अधिक से अधिक I इतनी देवराशि उक्त खर्गे में होसकती है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें देवराशिकी संदृष्टि - ३ ऐसी है। यहाँ यह जगतश्रेणीका चिह्न है। और घनांगुल का तृतीय वर्गमूलका चिह्न ३ है । तो जगतश्रेणीको घनांगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर - ३ ऐसा होता है यही सौधर्म युगल में देवोंका प्रमाण है । सनत्कुमार माहेन्द्र युगलसे लेकर पाँच युगलोंमें देवराशिकी संदृष्टि कमसे इस प्रकार
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। जिसका आशय यह है कि जगतश्रेणिको क्रमसे जगतश्रेणिके ही ग्यारहवें नौवें सातवें, पाँचवें और चौथे वर्गमूलका भाग दो । तथा आनतादि दो युगल, ३ अधोत्रैवेयक, ३ मध्यमग्रैवेयक, ३ उपरिम ग्रैवेयक, ९ अनुदिश विमान और ५ अनुत्तर विमान इन सात स्थानों में से प्रत्येक में पत्य असंख्यातर्वे भाग देवराशि है । उनकी संदृष्टि ऐसी है। ऊपर जो संदृष्टि दी है वह पाँच अनुत्तरसे लेकर सौधर्मयुगल तक की है। सो ऊपरवाली पंक्तिके कोठोंमें तो देवोंका प्रमाण लिखा है । और नीचेवाली पंक्ति में अनुत्तर वगैरह का संकेत है । सो पाँच अनुत्तरों का संकेत
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