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१२. धर्मानुप्रेक्षा दिन प्रति वासादिकपपमा वर्षादिकृतप्रमाणे वर्षायनर्तुमासपक्षदिवसादिपर्यन्तकृतनाद कृतसंवरणम् अथवा मासादिकसपमाणं वस्वादिचतुर्दशवस्तूनां सप्तदशवस्तुना प्रतिदिन नियमः परिमाण वा मर्यादासंख्या कर्तव्यम् । स च 'संबूल १ गध २ पुप्फा ३ दिससंसा ४ बस्य ५ वाहणं जाण । सचित्तवत्युसंखा ८ रसपाओ , आसर्ग सेज्दा १० ॥णियगाममग्गसंषा ११ उद्दा ११ अहो १३ तिरयगमणपरिमार्ण १ । एदे चंउदसणियमा पढिदिवस होति साबयाणे च ॥ भोजने १ असे २ पाने ३ कुलमादिविलेपने ४ । पुष्प ५ ताम्बूल ६ गीतेषु . नृत्यादौ ८ प्रमचर्यके २॥मान १० भूषण ११ वस्त्रादौ १२ वाहने १३ शयना १४ सने १५। सचित्त १६ वस्तुसंख्यादौ १७ प्रमाण भज प्रत्यहम् ।।' इति । किमर्थ संवरणम् । लोभकामशमनार्थम् , लोभः तृष्णा परवस्तुवाञ्छा कामः कन्दर्पसुखं तयोलोमकामयोः शमनार्थ निरासार्थम् । पुनः किमर्थम् । सावधवर्जनार्थम् , साना हिंसादिकृतपाईं तस्य पापकर्मणः वर्जन निचिः तदर्थ पापव्यापारशमनाय पडिसंदरणं पूर्वकृत संवरणमपि पुनः संवरण प्रतिसैवरणम् । चनुदेशावशिकशिक्षामतस्याति
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और वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष या दिनका परिमाण करके वह उतने समय तक उस मर्यादाके बाहर नहीं आता जाता | तथा इसी प्रकार इन्द्रियोंके विषयोंको भोगनेके परिमाणको भी घटाता है । अथवा गाथामें आये 'घासादिक पमाणं' पदका अर्थ 'वर्ष आदिका प्रमाण' न करके 'वन आदिका प्रमाण' अर्थ भी किया जा सकता है क्यों कि प्राकृतमें 'वास' का अर्थ वन भी होता है । अतः तब अर्थ ऐसा होगा कि देशावकाशिक वतीको यस आदि चौदह वस्तुओका अथवा सतरह वस्तुओं का प्रतिदिन परिमाण करना चाहिये । वे चौदह वस्तुएँ इस प्रकार कही है-ताम्बूल, गन्ध, पुष्प वगैरह, वसा, सवारी, सचित्तवस्तु, रस, वाय, आसन, शया, अपने गांवके मार्ग, ऊर्ध्वगमन, अधोगनन और तिर्यम्गमन । इन चौदह बातोंका नियम श्रावकको प्रति दिन करना चाहिये । सतरह वस्तुएँ इस प्रकार है-भोजन, षट् रस, पेय, कुंकुम आदिका लेपन, पुष्प, ताम्बूल, गीत, नृत्य, मैथुन, बान, भूषण, बख, सवारी, शय्या, आसन, सचिस और वस्तु संख्या । इन सतरह वस्तुओंका प्रमाण प्रति दिन करना चाहिये कि मैं आज इतनी बार इतना भोजन करूंगा, या न करूँगा, आदि । यह प्रमाण लोभ कषाय और कामकी शान्ति के लिये तथा पापकर्मसे बचनेके लिये किया जाता है। इसीका नाम देशाषकाशिक व्रत है । यह हम पहले लिख आये हैं कि किन्हीं आचार्योंने देशावकाशिक व्रतको गुणवतोंमें गिनाया है और किन्हीने शिक्षाप्रोंमें गिनाया है । जिन आचार्योने देशाश्काशिकको शिक्षावतोंमें गिनाया है उन्होंने उसे प्रयम शिक्षावत रखा है तथा दिग्विरतिव्रतके अन्दर प्रतिदिन कालकी मर्यादा करके देशकी मर्यादाके सीमित करनेको देशात्रकाशिक कहा है। यही बात 'देशायकाशिक' नामसे भी स्पष्ट होती है। किन्तु इस ग्रन्थमें अन्धकारने देशावकाशिकको चौथा शिक्षावत रखा है तथा उसमें दिशाओंके परिमाणके संकोचके साथ भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका नियम रखा है । ये बातें अन्यत्र हमारे देखनेमें नहीं आई । अस्तु, इस व्रतके भी पाँच अतिचार कहे हैं काम पड़नेपर मर्यादित देशके बाहरसे किसी वस्तुको लानेकी आज्ञा देना आनयन नामक अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर किसीको भेजकर काम कराना प्रेष्यप्रयोग नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले मनुष्योको लक्ष्य करके खखारना वगैरह शब्दानुपात नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले नौकरोंको अपना रूप दिखाना जिससे वे मालिकको देखता देखकर जल्दी २ काम करें, रूपानुपात नामका अतिचार है।