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________________ -३३६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा सथा पचातिचारा पर्जनीयाः । 'मिथ्योपदेश रहो म्याख्यान कूटलेख कियाभ्यासापहारसाकारमन्त्र मेदाः । अभ्युदयनिःश्रेयसयोरिन्द्राहमिन्द्र तीर्थ करादिसुखस्य परमनिर्वाणपदस्य च निमित्तं या किया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रियायाः मुग्धलोकस्य अन्यथाकथनम् अन्यथाप्रवर्तनं धनादिनिमित्तं परवश्चनं च मिथ्योपदेशः । १ स्त्रीपुरुषाभ्यां रहसि एकान्ते यः क्रियाविशेषोsनुष्ठितः कृतः उक्तो वा स क्रियाविशेषो गुप्तहत्या गृहीत्वा अन्येषा प्रकाश्यते तत्रहो भ्याख्यानम् । २ । केनचित्सा अकथितम् अत किंचित्कार्य द्वेषवशात्परपीडार्थम् एत्रमनेनोक्तमेवमनेन कृतम् इति परवचनार्थं यत् लिख्यते राजादौ दश्ते सा कूटखया पैशुन्यमित्यर्थः । ३ । केनचित्पुरुषेण निजमन्दिरे किं द्रव्यं न्यासीकृतं निशिमं तस्य द्रव्यस्य ग्रहणकाले संख्या विस्मृता विस्मरणात अल्प द्रव्यं गृहाति, न्यायवान् पुमान्, अनुज्ञावचनं ददाति । हे देवदत्त यावन्मात्रै स वर्तते तावन्मात्रं त्वं गृहाण, किमत्र प्रष्टव्यम् । जानन्नपि परिपूर्ण तस्य न ददाति न्यासापहारः । ४ । कार्यकरणम विकारं भ्रूक्षेपादिकं परेषां दृष्ट्वा पराशिप्रायमुपलभ्य ज्ञात्वा अस्यादिकारणेन तस्य पराभिप्रायम्य अन्येषां प्रकटनं यत् क्रियते स साकारममेदः । ५ । एते द्वितीयान्तस्य पञ्चातिचाराः वर्जनीयाः । असत्यवचने दृष्टान्तकथाः वसुनृपधनदेवजिनदेवसत्यघोषादीनां ज्ञातव्याः ॥ ३३३-३४ ॥ अथ तृतीयाचौर्यमनं गाथाद्वयेनाह ૨૪૨ जो बहु-मुलं वत्युं अध्यय-मुलेण णेव गिण्हेदि । बीसरियं पिण गिण्हदि लाहे थोषे वि तूसेदि ॥ ३३५ ॥ जो परदयं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण । दिढ चित्तो सुद्ध-मई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ [ छाया यः स्तुति t कूट लेख क्रिया नामका अतिचार है । किसी पुरुषने किसीके पास कुछ द्रव्य धरोहर रूपसे रखा । लेते समय वह उसकी संख्या भूल गया और जितना द्रव्य रख गया था उससे कम उससे मांगा तो जिसके पास धरोहर रख गया था वह उसे उतना द्रव्य दे देता है जितना वह मांगता है, और जानते हुए भी उससे यह नहीं कहता कि तेरी धरोहर अधिक है, तू कम क्यों मांगता है ? यह न्यासापहार नामका अतिचार है । मुखकी आकृति वगैरह से दूसरोंके मनका अभिप्राय जानकर उसको दूसरोंपर प्रकट कर देना, जिससे उनकी निन्दा हो, यह साकार मंत्रभेद नामका अतिचार है । इस प्रकार के जिन कामोंसे व्रतमें दूषण लगता हो उन्हें नहीं करना चाहिये । सव्याणुव्रत में धनदेवका नाम प्रसिद्ध है। उसकी कथा इस प्रकार है। पुण्डरीकिणी नगरीमें जिनदेव और धनदेव नामके दो गरीब व्यापारी रहते थें । धनदेव सत्यवादी था। दोनोंने बिना किसी तीसरे साक्षीके आपसमें यह तय किया कि व्यापारसे जो लाभ होगा उसमें दोनोंका आधा आधा भाग होगा । और वे व्यापारके लिये विदेश चले गये तथा बहुतसा द्रव्य कमाकर लौट आये। जिनदेवने धनदेवको लाभका आधा भाग न देकर कुछ भाग देना चाहा । इसपर दोनोंमें झगड़ा हुआ और दोनों न्यायालय में उपस्थित हुए । साक्षी कोई था नहीं, अतः जिनदेवने यही कहा कि मैंने धनदेवको उचित द्रव्य देने का वादा किया था, आधा भाग देने का वादा नहीं किया था ! धनदेवका कहना था कि आधा भाग देना तय हुआ था । राजाने धनदेवको सव द्रव्य देना चाहा, किन्तु वह बोला कि मैं तो आधेका हकदार हूँ, सबैका नहीं। इसपर से उसे सच्चा और जिन देवको झूठा जानकर राजाने सब द्रव्य धनदेवको ही दिला दिया, तथा उसकी प्रशंसा की ।। ३३३ - ३३४ ॥ आगे दो गाथाओंसे तीसरे अचौर्याणुत्रतका स्वरूप कहते हैं। + गृह्णाति लाभे स्तोके अपि तुष्यति ॥ यः १ मो। २ अप्पय इति पाठः पुस्तकान्तरे पृष्टः ल म सग अप्पमुलेण । ३ स ग. भूने। ४ स अणुध्व्वदी । कार्तिके ३१
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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