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________________ -४६८] १२. धर्मानुप्रेक्षा [छाया-य: नैव जानाति आत्मानं ज्ञानस्वरूप शरीरतः भिन्नम् । स नैव जानातिशासम् आगमपाठं कुर्वन् अपि॥] स मुनिः शान जिनोक्तश्रुतशाने नैव जानाति नैव देति । कीटक सन् । आगमपाठ प्रवचनपठनं जिनोक्तश्रुतज्ञानपठन पाठनं च कुर्वन्नपि । अपिशब्दान् अकुर्वाः । स कः । यो योगी नापि जानाति नापि वेत्ति । कम् । आत्मानं स्वचिदानन्द शुद्धचिपम् । कीदृक्षम् । ज्ञानस्वरूपं शुद्धबोधस्यभावं केवलज्ञानदर्शनमयम् । पुनः कीदृशम् । शरीरात् भिमं पृथक्त्वं परमात्मानं न जानाति यः स किमपि शत्रं न जानातीत्यर्थः । तथाहि पचप्रकारः स्वाध्यायः । 'चाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षामायधर्मोपदेशाः।' यो गुरुः पापकियाधिरतः अध्यापनक्रिया फलं गापेक्षते स गुरुः शास्त्रे पाठयति । शाखस्यार्थ वाच्य कथयति प्रन्यार्थद्वयं च व्याख्याति । एवं विविधमपि शास्त्रपदानं पात्राय शिष्याय ददाति उपदिशति सा वाचना कथ्यते । प्रच्छना प्रश्नः अनुयोगः, शास्त्रार्थ जाननषि पृच्छति । किमर्थम् । संदेहविनाशाय । निश्चितोऽप्यर्षः किमर्य पृच्छयते । प्रन्धार्थयबलनानिमित्तम् । सा परदना निमोन्नतिपरप्रतारणोपहासादिनिमित्तं यदि भवति तदा संक्राधिका न भवति २। परिज्ञातार्थस्य एकाग्रेश मनरग यत्पुनः पुनरम्यसनमनुशीलनं सानुप्रेक्षा, अनित्यादिभावनाचिन्तनानुप्रेक्षा ३ ॥ आधस्थानोच्चारविशेषेण यत शुद्ध घोषणं पुनः पुनः परिवर्तन स अरम्नायः ४ । दृष्टादृष्टप्रयोजनमनपेक्ष्य उन्मार्गविच्छेदनाय संदेहच्छेदनार्थम् अपूर्वार्धप्रकाशमादिकृते केवलमारमयोऽर्थ महापुराणादिधर्म कथाद्यनुकथनं स्तुतिदेववन्दनादिकं च धमापदेशः ५। अस्य स्वाध्यायस्य कि फलम् । प्रजातिशयो भवति, प्रशस्ताभ्यवसायम सेज्ञायते, परमोत्कृष्ठसंवेगः सेपद्यते। प्रवचन स्थितिजागर्ति, तपोवृदियाभाति, अनी चार शोधनं वान, संशयोच्छेदो जाघटीति, मिथ्यावादिभयाधभावो भवति ॥ ४६६ ॥ अथ व्युत्सर्गतपोविधानं गाथात्रयेणाह जल-मल'-लित्त-गत्तो दुस्सह-वाहीसु णिप्पडीयारो । मुह-धावणादि-विरऔ भौयण-समादि-णिरवेक्खो ॥ ४६७ ।। ससरूव-चिंतण-रओ' दुजण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तओ तस्स ॥४६८ ॥ को नहीं जानता || भावार्थ-शाखके पठन पाठनका सार तो आत्मस्वरूपको जानना है। शाम पदकर भी जिसने अपने आत्मस्वरूपको नहीं जाना उसने शास्त्रको नहीं जाना । अतः आत्मखरूपको जानकर उसीमें स्थिर होना निश्चयसे स्वाध्याय है । और स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, पृष्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । पापके कामोंसे विरत होकर जो पढ़ानेसे किसी लौकिक फलकी इच्छा नहीं रखता, ऐसा गुरु जो शास्त्रके अर्थको बतलाता है उसे वाचना कहते हैं । जाने हुए ग्रन्थके अर्थको सुनिश्चित करनेके लिये जो दूसरोंसे उसका अर्थ पूछा जाये उसे पृच्छना कहते हैं। यदि अपना बड़प्पन बतलाने और दूसरोंका उपहास करनेके लिये किसीसे कुछ पूछा जाये तो वह ठीक नहीं है । जाने हुए अर्थको एकाग्र मनसे पुनः पुनः अभ्यास करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। शुद्धता पूर्वक पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं। किसी दृष्ट अथवा अदृष्ट प्रयोजनकी अपेक्षा न करके उन्मार्गको नष्ट करनेके लिये, सन्देहको दूर करनेके लिये, अपूर्व अर्थको प्रकट करनेके लिये तथा आत्मकल्याणके लिये जो धर्मका व्याख्यान किया जाता है उसे धर्मोपदेश कहते हैं । खाध्याय करनेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है, शुभ परिणाम होते हैं, संसारसे वैराग्य होता है, धर्मकी स्थिति होती है, अतिचारोंकी शुद्धि होती हैं, संशयका विनाश होता है, और मिथ्यावादियोंका भय नहीं रहता ॥ ४६६ ॥ आगे तीन गाथाओंसे व्युत्सर्ग तपको कहते है | अर्थ-जिस मुनिका शरीर जल्ल और मलसे लिप हो, जो दुस्सह रोगके - -..... -. - १लग जलमह। २ ग ससरूवं चिंतणओ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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